जो अनकहा रहा पढ़ें अपनी लिपि में, JO ANKAHA RAHA Read in your own script,

Eng Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam Hindi

Saturday, December 19, 2009

ग्रीन रूम की हलचलों का कोलाज-2

तीन रोज पहले, पि‍छली डि‍स्‍पैच में, ग्रीन रूम की हलचलों का प्रसंग अधूरा रह गया था। अभी उसे पूरा समेटने की कोशि‍श्‍ा करूंगा। उस दि‍न अपनी प्राप्‍ति‍यों के बैलेंस शीट (!/?) की बात होती रह गयी थी। वैसे मेरे लि‍ए इसे इशू बनाने की कोई खास तुक नहीं है चूंकि‍ मेरे काम के दायरे का बड़ा हि‍स्‍सा अभी तक मन के वर्कशॉप में बंद है और उसे खुली हवा- धूप और बाजार के हवाले करना बाकी है। खेद है कि‍ दुनि‍या-जहान की चर्चा में यह बात छूट-सी गयी कि‍ ग्रीन रूम की तैयारि‍यों का जायजा भी नि‍हायत जरूरी है। तो आइये, मेरे साथ दो पल के लि‍ए हो लीजि‍ए। यह मेरा अन्‍तरकक्ष है यानी मेरी प्रयोगशाला। वहां चटख उजाला और नीम अंधेरा एक साथ रहते हैं। वहां आप एक कोने में खाली सफों की बेशुमार डायरि‍यां देख सकते हैं। अब तक मैं यह खयाली पुलाव पकाता रह गया कि‍ उन सबमें अपने सबसे अहम व खास अनुभवों का बयान दर्ज कर कभी अपनी यात्रा के अर्थ तलाशूंगा। वहां एक रैक ऐसा है जि‍समें मुड़ी-तुड़ी लंबि‍त परि‍योजनाएं, यादगार लगते लम्‍हों में तराशे गये नाजुक खयाल, 'बाद में' शीर्षक के तहत जुटायी गयी कथा सामग्री, 'इत्‍मीनान से' नाम का वि‍चार कोश्‍ा और बेतरतीब नक्‍शों का ए‍क भरापुरा अलबम साबुत बचा हुआ है।
अपने मन-मि‍जाज की यह बुनावट मेरी समझ में अब तलक नहीं आयी कि‍ आखि‍रश क्‍यों मैं अपनी लेखन प्रक्रि‍या की व्‍यस्‍तता के क्षणों में कौंध की तरह सतह पर उगे कई वि‍चारों को तत्‍काल शब्‍द-श्रृंखला में नहीं पि‍रोता। कुछ लि‍खते हुए जब और जो कुछ मुझे महत्‍वपूर्ण लगता रहा, उसे 'बाद में' , 'फि‍र कभी' या 'इत्‍मीनान से' कि‍सी खास जगह उपयोग में लाने के नाम पर अप्रयुक्‍त छोड़ता आया हूं।
इस तरह मेरे इस अजायबघर में अनकि‍ये कामों की एक लंबी तालि‍का अजन्‍मी रह गयी है। इस प्रसूति‍ कक्ष में भावी शि‍शुओं के कई पालने पड़े हैं- जैसे 'कभी' लि‍खने के लि‍ए अनेक कॉलमों के नाम, संपादन के लि‍ए पत्र-पत्रि‍काओं के नये शब्‍द शीर्ष, पुस्‍तकों के लि‍ए अध्‍यायों की सि‍नौप्‍सि‍स, आलेखों के लि‍ए उपयुक्‍त वि‍षय-शीर्ष, अनलि‍खे उपन्‍यासों के कथानक और प्‍लॉट, कहानि‍यों के भ्रूण की तरह सैकड़ों चरि‍त्र और मॉडल ।
इधर कुछ समय से यह चि‍न्‍ता घेरने लगी है कि‍ उम्र और सेहत के मौजूदा पड़ाव पर मैं इतने सारे काम भला कैसे पूरे कर सकूंगा ! सच तो यह भी है कि‍ मेरे काम का दायरा सि‍र्फ अनुभव और सृजन या वि‍चार और अभि‍व्‍यक्‍ति‍ तक सीमि‍त नहीं, बल्‍कि‍ घर-बाहर की ढेर सारी उलझनों की पेंचीदा चुनौति‍यों तक पसरा है। यकीनन, यहां मैं कि‍सी तरह की अत्‍युक्‍ति की टेक नहीं ले रहा। मुझे नि‍जी तौर पर नजदीक से जानने वाले लोग इस प्रश्‍न-वृत्‍त की यथोचि‍त जानकारी रखते हैं। प्रेस व्‍यवसाय में डेढ़ दशक गुजार कर भी अपनी पत्रि‍का इस आशंका से शुरू नहीं की उसकी नि‍रन्‍तरता पूंजी के अभाव में मुझसे नि‍भेगी कैसे ! और कि‍ संपादन के तनावी चक्‍कर में मेरा अपना लेखन बाधि‍त होता रहेगा। इसी तरह शुरू के दि‍नों में बहुत समय तक मैं इस पसोपेश में पड़ा रहता था कि‍ कथि‍त बड़ी पत्रि‍काओं को रचनाएं और प्रकाशन गृहों को अपनी पुस्‍तक पांडुलि‍पि‍यां भेजूं या नहीं भेजूं ! और अपने शहर में, कि‍सी आयोजन के सि‍लसि‍ले में आये जाने-माने लेखकों से मि‍लने से कतराता रहा कि‍ बतौर लेखक मेरे पास बताने को अधि‍क कुछ नहीं है। इस डर या साहसहीनता के वि‍श्‍लेषण के लि‍ए मैं आपको कोई सूत्र नहीं बतला सकता।
इस मनोभाव के ठीक उल्‍टे मैंने जीवन में कई बार जोखि‍म वाले कदम उठाये हैं। एमए करते समय स्‍वर्णपदक का संभावि‍त प्रत्‍याशी होने के बावजूद, अपने शहर में बने रहने की मजबूरी के कारण, अन्‍ति‍म परीक्षा शुरू होने से अट्ठारह दि‍न पहले केन्‍द्रीय सरकार के महालेखाकार कार्यालय की नौकरी ज्‍वायन कर ली। एमए की परीक्षा में अस्‍त-व्‍यस्‍त मन:स्‍थि‍ति‍ में शामि‍ल होने के कारण रि‍जल्‍ट अपेक्षि‍त नहीं हुआ तो वि‍श्‍ववि‍द्यालय शि‍क्षक की यथेष्‍ट पात्रता होने के बावजूद मैंने कभी आवेदन तक नहीं दि‍या। सरकारी सेवा में गुलामी के बीस साल जैसे-तैसे पूरा होते ही बयालीस की उम्र में मैंने स्‍वैच्‍छि‍क पेंशन के प्रावधान की मदद ले ली। फि‍र चौदह वर्षों तक प्रेस व्‍यवसाय में टि‍क कर, संघर्ष को कामयाबी के पड़ाव पर पहुंचा कर भी, वह सुखद नहीं लगा तो उसे अपने एक नजदीकी रि‍श्‍तेदार को उपहार के बतौर सौंप दि‍या। नौकरी और व्‍यवसाय दोनों से मुक्‍त होने के बाद कई साल तक खुद को खेतीबारी में आजमाने की कोशि‍श की। इस पूरे दौर में साहि‍त्‍य, समाज, संस्‍कृति‍ और राजनीति‍ की गति‍वि‍धि‍यों में कमोबेश नि‍ष्‍ठापूर्ण नि‍रन्‍तर भागीदारी चलती रही। फि‍र इन सबसे वि‍रक्‍त होकर फ्रीलांसि‍ग की ओर मुड़ गया। आखि‍रश अब बेफि‍क्र मलूकदास के रास्‍ते पर चलने की नाकाम कोशि‍श कर रहा हूं। लक्ष्‍मी के आने के रास्‍तों को एक के बाद एक बंद करते हुए अब कभी-कभी यह आशंका घेर लेती है कि‍ अगर आर्थिक तंगी से गुजरते हुए कभी कि‍सी से मदद मांगनी पड़ी तो बहुत झि‍झक होगी। ऐसा करना पड़ा तो लोग कहेंगे - देखो, यह आदमी कल तेज दौड़ रहा था, फि‍र जाने कि‍स सनक में इसने सरकारी नौकरी छोड़ दी, दो-दो मैनेजरों वाले जमे-जमाये प्रेस को बंद कर दि‍या, दो दैनि‍कों में मि‍ले काम के अवसरों को नाम-दाम के बहाने ठोकर मार दी, और आज लोगों से सहायता मांग रहा है।
शुक्र है कि‍ अब तक ऐसा दि‍न देखने की नौबत नहीं आयी। यह जोखि‍म उस आदमी ने उठाये जि‍सका बचपन अक्षरश: बेहद गरीबी और अभावों के बीच पि‍सते हुए गुजरा। तीन साल की उम्र में पि‍ता का साया छि‍न गया। उस समय बड़े भाई की वय थी सि‍र्फ आठ साल। कोई सगा सहारा नहीं था -न दादा, न चाचा। जैसे-तैसे स्‍कूली पढ़ाई पूरी हुई तो पहली बार सोलह साल की उम्र में पांवों को पहली चप्‍पल नसीब हुई। बीए में दाखि‍ला लेने के बाद मां के हाथ के सि‍ले कुरते-पाजामे की जगह पतलून पहनने को मि‍ली। एमए करने के तीस साल बाद जि‍द में पीएचडी की डि‍ग्री हासि‍ल की। चूंकि‍ अध्‍यापकी से अपना कोई कारोबारी नाता नहीं था, तो उस डि‍ग्री का कोई उपयोग न होना था, न हुआ। इस तरह समग्रता में वि‍गत को देखूं तो घटनाओं-प्रसंगों की तफसील में गये बगैर यही बता सकता हूं कि‍ परि‍वर्तन के हर मोड़ पर असुरक्षा का त्रास परछाईं की तरह मेरे साथ रहा। आज भी कुछ अलग कि‍स्‍म की असुरक्षा मेरी सहचरी है। लेकि‍न यह आत्‍मचर्चा यहीं रोकता हूं। अवान्‍तर प्रसंग फि‍र कभी।

1 comment:

Udan Tashtari said...

’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

-सादर,
समीर लाल ’समीर’