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Sunday, January 31, 2010

आदि‍वासी कलम की धार और हि‍न्दी संसार

पि‍छले दि‍नों पद्म पुरस्‍कारों की घोषणा के बाद मीडि‍या के जरि‍ए वि‍वाद के कई मुद्दे तीखे स्‍वरों में उभरे, लेकि‍न डॉ.रामदयाल मुंडा को (कला वर्ग में) मि‍ले पद्मश्री सम्‍मान की खबर पर आदि‍वासी क्षेत्रों में स्‍वागतम की लहर नि‍र्वि‍‍वाद रूप में प्रसारि‍त हुई। उस वक्‍त वे दि‍ल्‍ली में थे और जब वे पहली फरवरी को सेवा वि‍मान से रांची पहुंचे तो एयरोड्राम पर उनके स्‍वागत में दर्जनों लोक नर्तकों समेत सृजन और वि‍चार क्षेत्र से जुड़े़ अनेक लोगों की उपस्‍थि‍ति‍‍ से यह संदेश मुखर हुआ कि‍ इस सम्‍मान से लोकमन को समुदायि‍क स्‍तर पर गौरवान्‍वि‍त होने का सुख मि‍ला। आशा बनती है कि‍ अब आदि‍वासी कला-संस्‍कृति‍ की समृद्धि‍ की ओर लोगों का ध्‍यान पहले से अधि‍क जायेगा।
जहां तक पि‍छले दो दशकों की अवधि‍ में हि‍न्‍दी संसार में आदि‍वासी लेखकों की पैठ और पहचान की बात है, यह बेहि‍चक बताया जा सकता है कि‍ लेखन-प्रकाशन की बहुमुखी हलचलों के बूते झारखंड क्षेत्र की प्रति‍भाओं के पंख खुले हैं और कई समर्थ संभावनाओं की उपलि‍ब्‍धयों को आशंसा भी मि‍ली है। नागपुरी, कुरमाली और खोरठा जैसी क्षेत्रीय भाषाओं और मुंडारी, कुडु़ख, संताली और खड़ि‍या जैसी जनजातीय भाषाओं में साहि‍त्‍य की प्रमुख वि‍धाओं में लगातार लि‍खा-पढ़ा जा रहा है, कि‍ताबें छप रही हैं, पत्रि‍काएं नि‍कल रही हैं। कल-परसों तक शि‍क्षि‍त आदि‍वासी जन हि‍न्‍दी भाषा-साहि‍त्‍य के नि‍यमि‍त पाठक भर थे, अब उनमें कई, बल्‍कि‍ अनेक, लोग हि‍न्‍दी के लेखक हैं। मंच, मीडि‍या, मैगजि‍न और कि‍ताबों के मेले में उनके पांव मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं। सृजन और वि‍चार की यह सतरंगी दुनि‍या कभी तो कोरस के सामूहि‍क अंदाज में साकार होती है तो कभी एकल कृति‍त्‍व की उपलब्‍धि‍यों के कारण जरखेज व मायनीखेज बन जाती है। समग्रता में देखें तो आज की तारीख में आदि‍वासी कलम की धार आंचलि‍क, क्षेत्रीय और राष्‍ट्रीय स्‍तर तक असरदार बन चुकी है।
इस बहुभाषी पठारी इलाके में समाज-स्‍िथति‍ यह है कि‍ नौ क्षेत्रीय भाषाओं में वि‍श्‍ववि‍द्यालय स्‍तर पर अध्‍ययन-अघ्‍यापन का सि‍लसि‍ला अपने रजत जयन्‍ती वर्ष को पार कर चुका है। लि‍हाजा इस अंचल की मातृभाषाओं में लि‍पि‍बद्ध साहि‍त्‍य के लेखन-प्रकाशन की गति‍ तेज होती जा रही है। तो भी इस नयी प्रगति‍ के समान्‍तर समूचे पठार में माध्‍यमि‍क व उच्‍चतर शि‍क्षा का सर्वमान्‍य माध्‍यम आज भी हि‍न्‍दी ही है। लंबे समय से प्रशासन, व्‍यापार, सर्वाजनि‍क जीवन और संचार माध्‍यम की भाषा होने के कारण उसकी एक ऐति‍हासि‍क और सांस्‍कृति‍क भूमि‍का भी रही है। धीरे-धीरे वह झारखंडी समाज-संस्‍कृति‍-राजनीति‍ की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की भाषा बनती जा रही है। कल तक हि‍न्‍दी पत्र-पत्रि‍काओं के वि‍शाल पाठक परि‍वार के अनि‍गनत सदस्‍य आदि‍वासी समाज से आते थे, आज का सच यह है कि‍ उनमें कई हि‍न्‍दी के सुपरि‍चि‍त व प्रति‍ष्‍ठि‍त लेखकों में शुमार कि‍ये जाते हैं।
इस प्रगति‍ के पि‍छले दो दशकों में आदि‍वासी लेखकों का कृति‍त्‍व क्षेत्रीय हि‍न्‍दी पत्र-पत्रि‍काओं और पुस्‍तकों में लगातार सामने आता रहा है, आकाशवाणी और दूरदर्शन के कार्यक्रमों में समुचि‍त आमंत्रण तथा प्रति‍नि‍धि‍त्‍व पा रहा है। उनमें अधि‍कतर लोग प्रादेशि‍क स्‍तर पर जानेमाने लेखक के बतौर पहचाने व सराहे जा रहे हैं जबकि‍ कुछेक रचनाकारों की कलम की धार हि‍न्‍दी संसार की मुख्‍य धारा में घुलमि‍ल गयी है। इस नवोन्‍मेष के नि‍शान वैचारि‍क और सृजनात्‍मक दोनों कि‍स्‍म के लेखन में देखे जा सकते हैं। साहि‍त्‍य और पत्रकारि‍ता में यह दखल पुस्‍तकों और पत्र-पत्रि‍काओं की मार्फत स्‍वयंसि‍द्ध है। अब तक झारखंड में जि‍न आदि‍वासी हि‍न्‍दी लेखकों की पुख्‍ता पहचान बन चुकी है, उनमें आदि‍त्‍य मि‍त्र संताली, एलि‍स एक्‍का,पीटर शान्‍ति‍ नवरंगी, रामदयाल मुंडा, नि‍र्मला पुतुल, रोज केरकेट्टा, मंजु ज्‍योत्‍स्‍ना, पीटर पॉल एक्‍का, जेम्‍स टोप्‍पो, हेराल्‍ड एस. टोपनो, वाल्‍टर भेंगरा, मार्टि‍न जॉन अजनबी, ग्रेस कुजूर, महादेव टोप्‍पो, मोतीलाल, वासवी कि‍ड़ो, दयामनी बरला, सुनील मिं‍ज, शि‍शि‍र टुडु, पुष्‍पा टेटे, जोवाकम तोपनो, जेवि‍यर कुजूर, वंदना टेटे, सरि‍ता सिंह बड़ाइक, शान्‍ति‍ खलखो और फ्रांसि‍स्‍का कुजूर जैसे अनेक ख्‍यात-अल्‍पख्‍यात नाम याद कि‍ये जा सकते हैं। इनमें कई कलमकारों की सृजन यात्रा रूक गयी है, कई अन्‍य की अवरूद्ध या स्‍थगि‍त है, और अनेक लोग पूरी लय व समर्पण के साथ आज भी गति‍शील हैं। इस प्रसंग में स्‍मृति‍शेष हेराल्‍ड एस. टोपनो जैसे अप्रति‍म प्रति‍भाशाली रचनाकार के कृति‍त्‍व को नहीं याद कि‍या जाये तो वह इस वि‍रासत के प्रति‍ हमारे कोरे अज्ञान का सूचक होगा।
सृजन और वि‍चार के क्षेत्र में झारखंड की आदि‍वासी कलम के अवदान के कई पक्ष और वि‍धाएं हैं। पूरे वि‍स्‍तार में शोधकर्मी नि‍ष्‍ठा के साथ संदर्भ सहि‍त वि‍मर्श का यह उपयुक्‍त अवसर नहीं है। लि‍हाजा उनके प्रमुख रूझानों ‍और प्रस्‍तावकों की संक्षि‍प्‍त चर्चा यहां की जा रही है। पुस्‍तक संपादन के महत्‍व को स्‍वीकार करते हुए भी अगर सि‍र्फ पत्र-पत्रि‍काओं के संपादन से जुड़े लोगों को याद करें तो साप्‍ताहि‍क 'ग्राम निर्माण' के संपादन से जुड़े आदि‍त्‍य मि‍त्र संताली सबसे पहले याद आते हैं। आज भी इस दायि‍त्‍वपूर्ण कार्य से कई नाम जुड़े हैं। जैसे 'तरंग भारती' की कार्यकारी संपादक पुष्‍पा टेटे, 'देशज स्‍वर' से जुड़े सुनील मिं‍ज, अखड़ा की वंदना टेटे और सांध्‍य दैनि‍क 'झारखंड न्‍यूज लाइन' के संपादक वरि‍ष्‍ठ पत्रकार शि‍शि‍र टुडु। इस प्रदेश के वि‍चारकोश को समय-समय पर अनेक धरतीपुत्रों ने समृद्ध कि‍या है। लेकि‍न पत्र-पत्रि‍काओं में जि‍नकी नि‍यमि‍त उपस्‍थि‍ति‍ से सर्वाजनि‍क प्रश्‍नों और समस्‍याओं को पर छाया धुंध का कोहरा छंटता रहा है, उनमें सबसे पहले याद आते हैं 'जंगल गाथा' से अपनी वि‍शि‍ष्‍ट पहचान बनाने वाले लेखक-पत्रकार हेराल्‍ड एस. टोपनो और बहुमुखी सृजनशीलता के धनी डॉ.रामदयाल मुंडा। सामाजि‍क-राजनीति‍क वि‍श्‍लेषण के लि‍हाज से एनई होरो, निर्मल मिंज, रोज केरकेट्टा, प्रभाकर तिर्की, सूर्य सिं‍ह बेसरा और महादेव टोप्‍पो जैसे कई लोगों ने अपनी भागीदारी को बार बार अर्थपूर्ण‍ बनाया है।
पत्रकारि‍ता, जि‍से अक्‍सर जल्‍दी में लि‍खा गया साहि‍त्‍य भी कहा-माना जाता है, में वि‍वेचना, साक्षात्‍कार या रि‍पोर्ताज की शैली में अपने संवाद को प्रभावी बनाने के लि‍हाज से वासवी, दयामनी बरला, सुनील मिंज और शि‍शि‍र टुडु अपने प्रति‍योगि‍यों पर भारी पड़ते हैं। यहां ऐसे तमाम कलमकारों की कोई मुकम्‍मल फेहरि‍स्‍त नहीं पेश की जा रही है, बल्‍कि‍ चंद बानगि‍यों और नुमाइंदों का जि‍क्र भर हो रहा है। लेकि‍न इन सबकी सोच और सरोकार की सीमाएं इस बिं‍दु पर समान दि‍खती हैं कि‍ अपने वर्ग-समाज-राजनीति‍-संस्‍कृति‍ से बाहर की दुनि‍या के मस्‍लों के बारे में ये लगभग खामोश दि‍खते हैं। बेशक इसी एप्रोच के चलते देश और दुनि‍या की बेहतरी के लि‍ए इनकी चि‍न्‍ताएं और सपने अपने परि‍वेश तक सीमि‍त हैं।
साहि‍त्‍य लेखन की ओर रूख कि‍या जाये तो कहना होगा आदि‍वासी रचनाशीलता की मुख्‍य वि‍धाएं हैं-कवि‍ता, कहानी, उपन्‍यास और संस्‍मरण। आलोचना और व्‍यंग्‍य को अपनी अभि‍व्‍यक्‍ति‍ का माध्‍यम बनाने की दृष्‍टि‍ से बुदु उरांव और मंजु ज्‍योत्‍स्‍ना के नाम लि‍ये जा सकते हैं, लेकि‍न यह जोड़ते हुए कि‍ उनके काम का परि‍माण अभी तक अल्‍प है। झारख्‍ांडी भाषाओं के नवोन्‍मेष के लि‍ए समर्पित कृति‍कारों की तालि‍का लंबी हो सकती है, तो भी पीटर शान्‍ति‍ नवरंगी, रामदयाल मुंडा और हरि‍ उरांव के नाम-काम भुलाये नहीं जा सकते। हि‍न्‍दी कवि‍ता में झारखंड का जो आदि‍वासी नाम सर्वाधि‍‍क जाना-पहचाना बन चुका है, वह है संताली कवयि‍त्री नि‍र्मला पुतुल का। उनकी कवि‍ता पुस्‍तक 'नगाड़े की तरह बजते शब्‍द' बहुत चर्चा में रही है। रामदयाल मुंडा के दो कवि‍ता संग्रह भी हि‍न्‍दी में खासे चर्चि‍त हुए हैं - 'नदी और उसके संबंधी तथा अन्‍य नगीत' और 'वापसी, पुनर्मि‍लन और अन्‍य नगीत'। उनकी परवर्ती कवि‍ताओं में प्रकृति‍ और मनुष्‍य के आदि‍म राग-वि‍राग की जगह राजनीति‍ और समाज की वि‍संगति‍यों ने ले ली है। 'कथन शालवन कगे अंति‍म शाल का' और 'वि‍कास का दर्द'जैसी उनकी कवि‍ताएं उजाड़ बनते झारखंड की व्‍यथा-कथा और वि‍संगति‍यों को उकेरती हैं। पि‍छले वर्षों में ग्रेस कुजूर, मोतीलाल, और महादेव टोप्‍पो की कई कवि‍ताएं भी खूब सराही गयीं। पत्र-पत्रि‍काओं में छि‍टपुट लि‍खने वाले युवा कवि‍यों-कवयि‍त्रि‍यों की कतार अब लंबी होती नजर आ रही है। झारखंड में लि‍खी जा रही आदि‍वासी कलम की हि‍न्‍दी कवि‍ता बृहत्‍तर हि‍न्‍दी पट्टी की शेष कवि‍ता से अपनी अलग पहचान जि‍स साझा रूझान से रेखांकि‍त करती है, वह है प्रतीक चरि‍त्रों और घटनाओं का संष्‍लि‍ष्‍ट कथात्‍मक नि‍वेश और प्रति‍रोध के आंचलि‍क रंग। यहां वर्णि‍त यथार्थ का अर्थ अमूर्त स्‍िथति‍यों का हवाई सर्वेक्षण और अखबारी समाज चेतना की अनुकृति‍ कतई नहीं है।
कहानी वि‍धा में आदि‍वासी कलम का कोई चर्चि‍त कथाकार अभी तक नहीं उभरा, हालांकि‍ कभी-कभार अच्‍छी कहानि‍‍‍यां कई लोगों ने लि‍खी हैं। वाल्‍टर भेंगरा के दो कहानी संग्रह बहुत पहले छप चुके थे-'देने का सुख' और 'लौटती रेखाएं'। पीटर पाल एक्‍का के तीन कहानी संग्रह भी आठवें दशक में आ चुके थे-' खुला आसमान बंद दि‍शाएं', 'परती जमीन'और 'सोन पहाड़ी'। जेम्‍स टोप्‍पो का कहानी संग्रह भी उन्‍ही दि‍नों आया था-'शंख नदी भरी गेल'। मंजु ज्‍योत्‍स्‍ना का कहानी संग्रह 'जग गयी जमीन' छप कर भी यथेष्‍ट चर्चा नहीं जुटा पाया। एलि‍स एक्‍का की कहानि‍यां 'आदि‍वासी' पत्रि‍का के पन्‍नों में ही सि‍मटी रह गयीं। रोज केरकेट्टा ने प्रमचंद की दस कहानि‍यों का अपनी मातृभाषा खड़ि‍या में अनुवाद कि‍या और खुद भी 'भंवर' जैसी मजबूत कहानी लि‍खी, लकि‍न कथा वि‍धा में ज्‍यादा टि‍क कर उन्‍होंने अधि‍क काम नहीं कि‍या। उन दि‍नों से आज तक आदि‍वासी कथा लेखकों के एकल कहानी संग्रह का अकाल यहां जारी है। ले‍कि‍न कहानी वि‍धा के साथ अगर उपन्‍यास को भी यहां संयुक्‍‍त कर दि‍या जाये, तो आदि‍वासी कथा साहि‍त्‍य का भंडार अपेक्षया भरापुरा लग सकता है। अवि‍स्‍मरणीय है कि‍ हेराल्‍ड एस. टोपनो के अधूरे (प्रकाशि‍त) उपन्‍यास को पढ़ते हुए एक वि‍स्‍फोटक संभावना से भेंट होती है।
आठवें दशक में इस अंचल की आदि‍वासी कलम का पहला हि‍न्‍दी उपन्‍यास आया 'सुबह की शाम' और कथाकार थे वाल्‍टर भेगरा(उस समय तक 'तरूण' उपनाम के साथ लि‍खते हुए)। पि‍छले दशक में उनके तीन उपन्‍यास सत्‍यभारती प्रकाशन, रांची से आये-'तलाश', 'गैंग लीडर' और 'कच्‍ची कली'। लेकि‍न जि‍स उपन्‍यास की चर्चा पि‍छले दि‍नों अधि‍क हुई, वह है 'जंगल के गीत'। इस अंचल के वरि‍ष्‍ठ उपन्‍यासकार पीटर पाल एक्‍का ने इस उपन्‍यास की मार्फत महान बि‍रसा के उलगुलान के संदेश को सामयि‍क संदर्भ में तुंबा टोली गांव के युवक करमा और उसकी प्रि‍या करमी के कथा वि‍तान के जरि‍ए अग्रसारि‍त करने की कोशि‍श की है। इस उपन्‍यास से पहले उनका एक और उपन्‍यास 'मौन घाटी' शीर्षक से आ चुका था। फ्रांसि‍स्‍का कुजूर अपनी मातृभाषा कुडुख के साथ हि‍न्‍दी में भी कवि‍ताएं और कहानि‍यां लगातार लि‍ख रही हैं और अपने परि‍वेश की दुर्दशा के प्रति‍ सजग संवेदना के लि‍ए पढ़ी-सराही जा रही हैं।
झारखंड के अधि‍संख्‍य आदि‍वासी कथाकारों की एक बड़ी मुश्‍कि‍ल यह जान पड़ती है कि‍ वे आधुनि‍क लेखन के सामयि‍क रूझानों और शि‍ल्‍प-सांचों से सुपरि‍चि‍त नहीं लगते। उपन्‍यास की उनकी अवधारणा पुरानी कसौटि‍यों पर टि‍की मालूम पड़ती है। पि‍छले दो सौ वर्षों में पूरी दुनि‍या में उपन्‍यास वि‍धा के कथा शि‍ल्‍प के इतने संस्‍करण सामने आ चुके हैं कि‍ उसमें संकलि‍त अन्‍तर्वस्‍तु में समग्र जातीय जीवन का वि‍स्‍तार समाहि‍त हो सकता है। रॉल्‍फ फॉक्‍स ने जब उसे लोकतंत्रीय समाज का महाकाव्‍य कहा था तो उसके पीछे इस वि‍धा की व्‍यापक अपील की क्षमताओं का यही आकलन मानक रहा होगा। समग्रता में देखें तो समकालीन लेखन परि‍दृश्‍य से उनके गहन परि‍चय के सुयोग से 'एक बंद समाज' की अन्‍त:क्रि‍या का दुर्लभ सि‍लसि‍ला शुरू हो सकता है। इस तरह झारखंडी भाषाओं के कथा साहि‍त्‍य में,और हि‍न्‍दी में भी, वस्‍तु कथन या प्रस्‍तुति‍ का नया अंदाज एक बड़े दायरे को आन्‍दोलि‍त करने में समर्थ भी हो सकता है। अन्‍तत: उपन्‍यास कहानि‍यों का गुच्‍छा भर नहीं होता।
नि‍ष्‍कर्षत: यह कहा जा सकता है कि‍ आज की तारीख में आदि‍वासी कलम की कथाकृति‍यां कई अर्थों में वि‍शेष ध्‍यान दि‍ये जाने की हकदार हैं। यह नजरअंदाज करने योग्‍य बात नहीं है कि‍ अभी यहां गढ़ा जा रहा कथावि‍तान अनगढ़ खुरदरेपन की गि‍रफ्त में पड़ा भले दि‍खे और नतीजतन वहां कलात्‍मक बारीकि‍यां भी कम मि‍लें, लेकि‍न आदि‍वासी हि‍न्‍दी लेखकों की खास अहमि‍यत इसकारण अर्थपूर्ण है कि‍ इनकी मार्फत सदि‍यों से कोहराच्‍छन्‍न एक बड़ी आबादी के जीवन मूल्‍य, जीवन शैली और अस्‍ति‍त्‍व का संघर्ष पूरी दुनि‍या के सामने आ रहा है। बेशक अभी इनका कथ्‍य इनके आसपास का समाज जीवन है, मगर उम्‍मीद है कि‍ कल इनमें से कुछ लेखक भारतीय समाज की समग्र कथाभूमि‍ में भी अपनी गहरी पैठ बना लेंगे।

Monday, January 4, 2010

हि‍न्‍दी संसार में अक्षांश व देशान्‍तर की रेखाएं-2

कृति‍यों के मूल्‍यांकन में आलोचक-समीक्षक नाम का जीव सर्वथा समर्थ माना जाता है। हि‍न्‍दी आलोचना के मि‍जाज पर नजर डालें तो उसे कई खेमों में बंटा हुआ और शेयर बाजार के रोल में देखा जा सकता है। एकेडमि‍क आलोचना सि‍लेबसी साहि‍त्‍य का वि‍पणन करती है। वहां परम्‍परावादी कसौटि‍यों की हैसि‍यत सबसे उंची है। दूसरी ओर सामयि‍क पत्र-पत्रि‍काओं में समकालीन लेखन पर चर्चा-परि‍चर्चा के स्‍तम्‍भ, वि‍मर्श, टीका-टि‍प्‍पणि‍यां, आलेख व पुस्‍तक समीक्षाएं तरजीह पाती हैं। तीसरे खेमे में वि‍श्‍ववि‍द्यालयी शोधप्रबंधों का जखीरा है जहां वि‍वरणों की प्रामाणि‍कता और संदर्भ नि‍र्देशों का महत्‍व सर्वोपरि‍ है। इन तीनों तरह की आलोचनाशैलि‍यों के अपने आग्रह और प्रयोजन हैं। प्राय: इन खेमों के नि‍ष्‍कर्ष और आकलन वि‍वादग्रस्‍त हुआ करते हैं और अक्‍सर एक-दूसरे को कतई मान्‍य नहीं होते। यह जरूर है कि‍ इन सभी श्रेणि‍यों में कई नाम-काम हमेशा स्‍वीकृत-सम्‍मान्‍य रहते आये हैं। उन्‍हें संजीदगी से पढ़ा-गुना गया है।
इसके बावजूद अगर समग्रता में सोचें तो हि‍न्‍दी आलोचना का वर्तमान परि‍दृश्‍य मठाधीशों की बि‍रादरी में आपसी मुठभेड़ से खासा गुलजार है। प्रिंट‍ मीडि‍या के वि‍भि‍न्‍न मंचीय खेमों में अपनी डफली अपना राग का कोरस हर मौसम में साफ सुना जा सकता है। इस अंधायुग मार्का कोलाहल से छोटे व मंझोले शहरों-कस्‍बों की पाठक बि‍रादरी को वास्‍तवि‍क स्‍थि‍ति‍ का सही अनुमान तुरत नहीं हो पाता। याद कीजि‍ए कि‍ पि‍छले दशक में गुजरी सदी के अवसान पर लगभग हर छोटी-बड़ी पत्रि‍का ने बीसवीं सदी, और खास तौर पर उसके उत्‍तरार्द्ध के समय की सृजनात्‍मक वि‍रासत के मूल्‍यांकन का आयोजन कि‍या। ऐसे अवसरों के ऐति‍हासि‍क महत्‍व को स्‍वीकार करने के बावजूद यह जोड़ना जरूरी है कि‍ सृजन की आंचलि‍क वि‍रासत और ताजगी इस पूरे तामझाम से अलग रही या रखी गयी।

अब थोड़ी देर के लि‍ए हि‍न्‍दी संसार के प्रकाशन-मूल्‍यांकन की गति‍वि‍धि‍यों पर नि‍गाह डालें। दूसरी भारतीय भाषाओं की तरह हि‍न्‍दी में भी वि‍शेष अवसरों पर वि‍शेषांक नि‍कालने का रि‍वाज पुराना है। बीते कई वर्षों में हि‍न्‍दी इंडि‍या टुडे के साहि‍त्‍य वि‍शेषांक चर्चित हुए। उन अंकों में शामि‍ल लेखकों की तालि‍का पर नजर डालें तो यह साफ हो जायेगा कि‍ झारखंड अंचल के लेखकों की उपस्‍थि‍ति‍ नामलेवा भर रही। यहां यह पूछा जा सकता है कि‍ आखि‍र इसमें गलत क्‍या है! और ऐसा हुआ क्‍यों ? क्‍या इस इलाके के लेखक हि‍न्‍दी पत्र-पत्रि‍काओं में अपनी रचनात्‍मक भागीदारी कम नि‍भा रहे ? सच इसके वि‍परीत है। यह कि‍सी पत्रि‍का का वि‍शेषाधि‍कार हो सकता है कि‍ वह अपने चयन में अपनी कसौटी का उपयोग करे। कि‍न्‍तु इस संप्रभुता का सम्‍मान करते हुए भी यह जोड़ना जरू‍री है कि‍ ऐसी मंशा के पीछे संपादक मंडल के अपने अघोषि‍त प्रयोजन भी हो सकते हैं। यह जगजाहि‍र-सी सूचना है कि‍ हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य की मुख्‍य परि‍धि‍ में हर राज्‍य-प्रदेश की अपनी-अपनी लॉबी है। उस केन्‍द्रीय धुरी में जि‍न इलाकों से लेखक पहुंचते हैं, वे अपने अंचल के कलमकारों का भरपूर खयाल रखते हैं। तमाम वैचारि‍क मतभेदों के बावजूद ऐसे लोग अवसरों के प्रसाद वि‍तरण के मुद्दे पर एक ही सुर-ताल से बंधे-जुड़े नजर आते हैं। अपवाद होते हैं और होंगे भी, मगर यह अपनी जगह कायम नतीजा है। अबतक साहि‍त्‍य अकादमी पुरस्‍कारों की घोषणा के बाद जो वि‍वाद मीडि‍या में सामने आते रहे हैं, उनसे इस बात की तस्‍दीक होती है कि‍ बायें या दायें चलने वाले लोग भी रस्‍साकशी के खेल में रमते-जमते हैं और अपने लोगों को रेबड़ि‍यां बांटने में कोई कि‍सी से पीछे नहीं दि‍खता। जहां तक लेखकीय कृति‍यों की समीक्षा का सवाल है, वहां परीक्षकों के गैरपेशेवर एप्रोच और शाही अंदाज की मि‍सालें अक्‍सर मि‍लती हैं। नाम-काम के हवाले देकर इस सड़े हुए तालाब के ठहरे पानी को और गंदला करना अपना न मकसद है, न इरादा।

अब कि‍ताबों के बाजार की ओर भी एक नजर डाल लेना मुनासि‍ब लगता है। एक तरफ धुआंधार बयानबाजी होती है कि‍ हि‍न्‍दी में कि‍ताबें बि‍कती नहीं, कि‍ उनको पाठक नहीं मि‍लते, और दूसरी तरफ प्रकाशकों का मुहल्‍ला रोशन फव्‍वारों से गुलजार है। खुली आंख से देखने वाला नजारा यह है कि‍ हि‍न्‍दी संसार में पुस्‍तक पथ पर रौनक का ग्राफ समृद्धि‍ की ओर मुखाति‍ब है। पि‍छले दि‍नों नि‍र्मल वर्मा की पत्‍नी गगन गि‍ल और प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के बीच रायल्‍टी के हि‍साब का वि‍वाद खासा चर्चित हुआ था। राजकमल ने एक लि‍खि‍त वि‍ज्ञप्‍ति‍ में दावा कि‍या था कि‍ साल भर के भीतर नि‍र्मल परि‍वार को उन्‍होंने लाख रूपये से अधि‍क का चेक सौंपा था। एक तरफ कि‍ताबों की बि‍क्री का रोना लेखक की रायल्‍टी गुम करने का जरि‍या बनता है तो दूसरी तरफ जानेमाने लेखकों को भी प्राप्‍त राशि‍ से शि‍कायत की खबरें मि‍लती रहती हैं। वैसे यह अपनी जगह सही बात है कि‍ रोजगार ओर कैरि‍यर की महामारी में युवा पीढ़ी की पहली पसंद तकनीकी वि‍षयों की कि‍ताबें ही हो सकती हैं। इसके बावजूद यह सही है कि‍ सरकारी व थोक खरीदारी के चक्‍कर में पि‍छले काफी समय से कि‍ताबों की रि‍टेल या काउंटर सेल का खयाल हि‍न्‍दी के अधि‍कतर प्रकाशकों को नहीं रहता है। तभी पेपरबैक संस्‍करण या पॉकेट बुक्‍स की स्‍कीम उन्‍हें कम रास आती है। जि‍न कि‍ताबों के दोनों तरह के संस्‍करण बाजार में आते हैं, वे यह दोटूक बतला देती हैं कि‍ पेपरबैक संस्‍करण हार्डबाउंड कि‍ताबों की आधी कीमत पर बि‍कते हैं। यह तो हुई पुस्‍तक बाजार की हकीकत। अब उनके मूल्‍यांकन के नेटवर्क की चर्चा भी हो जाये।
पुस्‍तक मेलों के स्‍टाल और प्रकाशन संस्‍थाओं की ओर से जारी बुकलि‍स्‍टों के जरि‍ए यह खुलासा होता है कि‍ हर महीने, हर साल हि‍न्‍दी में वि‍वि‍ध वि‍षयों और वि‍धाओं की पुस्‍तकें बड़ी संख्‍या में प्रकाशि‍त होती हैं। इस खुशनुमा माहौल में अगर दैनि‍कों के साप्‍ताहि‍क परि‍शि‍ष्‍टों और पत्रि‍काओं पर नजर डालें तो आप खुद देख सकते हैं कि‍ समीक्षाओं के लि‍ए चुनी गई कि‍ताबों का हाल कैसा है। पत्र-पत्रि‍काओं के पन्‍नों पर जि‍न कि‍ताबों की रि‍व्‍यू हम सब देखते हैं, वे वहां तक पहुंचती कैसे हैं, यह जानना भी कम दि‍लचस्‍प नहीं । इस नाजुक मुद्दे की ब्‍योरेवार चर्चा असमंजस में डालने वाली हो सकती है। लि‍हाजा फि‍लहाल सि‍र्फ दो-एक रूझानों की झलक भर देखी जाये।
रि‍व्‍यू के लि‍ए कि‍ताबों के चयन का मामला अगर संपादकीय वि‍वेक का मामला रहे तो उसकी स्‍वायत्‍तता की कद्र मुनासि‍ब है। लेकि‍न अगर वह मनमर्जी बन कर सामने आये तो आप क्‍या कर सकते हैं ! बहुसंख्‍यक लेखकों से पूछ कर देखि‍ए तो वे ऐसी हठी पक्षधरता पर खीजते नजर आयेंगे। रि‍व्‍यू में क्‍या लि‍खा गया, यह तो बाद की बात है, उससे पहले समीक्षा के लि‍ए मंजूर पैनल तक पहुंचने का काम भी सबके बस की बात नहीं। ठेठ व्‍यापारी कि‍स्‍म के प्रकाशक रि‍व्‍यू के नाम पर कंप्‍लीमेंटरी कॉपी के नि‍:शुल्‍क वि‍तरण की जहमत नहीं उठाते, बल्‍कि‍ इसकी बजाये अपने नि‍श्‍चि‍त बाजार को पटाने को अहमि‍यत देते हैं। अब लेखक बेचारा क्‍या करे ! ‍कि‍ताब छप गई, यही कोई कम मेहरबानी है प्रकाशक की। लि‍हाजा वह अपने स्‍तर से, अपने संसाधनों की हद में, अपने सरोकारों का भरसक इस्‍तेमाल की कोशि‍श करता है।
लेकि‍न इस शि‍कायती लहजे से बहुत उपर की बात यह लगती है कि‍ आज के दौर में पुस्‍तकें समीक्षा बाजार और वि‍ज्ञापन के जबड़े के बीच पड़ गयी हैं। अपना कयास है कि‍ हम सब नीर-क्षीर वि‍वेक के हंस मार्ग से बहुत आगे नि‍कल आये हैं। बुक रि‍व्‍यू अब एक प्रायोजि‍त कार्यक्रम है। शायद यही वजह है कि‍ अपवादों की चुनी हुई मि‍सालें छोड़ दें तो पायेंगे कि‍ अधि‍संख्‍य पत्र-पत्रि‍काओं में पुस्‍तक समीक्षा के पन्‍नों पर हि‍न्‍दी के कुछेक गण्‍य-मान्‍य प्रकाशकों के उत्‍पादों के वि‍ज्ञापन जैसा मैटर छप कर सामने आता है। एक अंक-बार में अगर छह कि‍ताबों की चर्चा हो रही हो तो तय मानि‍ए कि‍ वहां वही-वही यशस्‍वी घराने अपने श्रेष्‍ठ साहि‍त्‍य के साथ मौजूद होंगे। मुमकि‍न है कि‍ कभी-कभी यह संयोग या इत्‍तेफाक की बात हो, लेकि‍न यही दस्‍तूर बन जाये तो आप कि‍स नतीजे पर पहुंचेंगे ? आखि‍रश कि‍स बाजीगरी के कौशल से समीक्षा के मंच-मेले में बस यही गि‍नीचुनी कद्दावर हस्‍ति‍यां अपना जलवा हमेशा बि‍खेर लेती हैं। प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रीति‍ से प्रायोजि‍त यह परि‍दृश्‍य लेखक और पाठक के बीच एक मजबूत मगर अदृश्‍य दीवार बन कर खड़ा हो गया लगता है।

Saturday, January 2, 2010

हि‍न्‍दी संसार में अक्षांश व देशान्‍तर की रेखाएं-1

वि‍शाल हि‍न्‍दी पट्टी में साहि‍त्‍य सृजन का जो कन्‍द्रीय प्रवाह है, उसमें वि‍भि‍न्‍न अंचलों और दि‍शाओं की लेखकीय उर्जा वि‍सर्जि‍त होती है, तो भी पीड़क सच यह है कि‍ उस संगम में जानी-मानी नदि‍यों की जलधारा तो मान-सम्‍मान पाती है, मगर अनगि‍नत अन्‍त:सलि‍लाओं के अंशदान को लगभग नकार दि‍या जाता है। आज भी देश-देशान्‍तर की नदि‍यों को जोड़ कर जन चेतना की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ के सम्‍यक वि‍तरण की सांस्‍कृति‍क इंजीनि‍यरींग कारगर नहीं दि‍खती। बहरहाल ऐसी कोशि‍शें जारी हैं, तो भी मुश्‍कि‍लें हल पर भारी हैं।
बेशक यह मामला लेखकों के काम, नाम या दाम तक ही महदूद नहीं है, क्योंकिइससे सामयि तौर पर अभिव्यक्तिके दबावों, रूझानों, दिशाओं और रूपाकारों की नियतिजुड़ी हुई है। लिहाजा, चंद जरूरी सवालों से रूबरू हुआ जाये जो समूची स्थितिपर भरपूर रोशनी डालते हैं। हिन्दी सर्जना के आंचलि परिदृश् पर गौर कीजि तो उसकी बुनियाद मलबे में दबी नजर आयेगी। सोचि, क्या बेहतर और प्रभावी रचनाओं की अन्तर्वस्तु का कोई आंचलि पहलू नहीं होता ? क्या कोई क्षेत्रीय या स्थानि प्रेरणा अभिव्यक्तिके कथ् और संदेश के आकार प्रकार को निर्धारि नहीं करती ? क्या कृतिऔर परिवेश के जैवि सम्बन्धों की अनदेखी होने से रचना से प्रक्षेपि अर्थ संदर्भरहि हो कर धुंधला नहीं हो जाता है ? अगर नहीं, तो पूछा जा सकता है किनिर्मला पुतुल और विद्याभूषण की कविताएं, योगेन्द्र नाथ सिनहा, संजीव और मनमोहन पाठक की कथाकृतियां, किट्टू और प्रियदर्शी की व्यंग् रचनाएं, रामदयाल मुंडा और बीपी केशरी की देशज अवधारणाएं- इन सब का उत् कहां है ? उनकी भाषि अभिव्यक्तिकी जड़ें अपनी रचनाभूमिसे बाहर और कहां खोजी जा सकती हैं ? यह अलग बात है किलेखक हर बार और हर जगह सिर्फ अपने निकट वर्तमान से प्ररि नहीं होता और अन् स्रोतों से सुलभ होती दिशा-दृष्टिभी उसे मानवीय मूल्यों से समृद्ध करती है।
अगर हि‍न्‍दी सर्जना के आंचलि‍क परि‍दृश्‍य को सामने रखें और झारखंड में लि‍खे जा रहे साहि‍त्‍य को सि‍र्फ कलावादी रूझान से नहीं परखें तो अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की उस भूमि‍का से परि‍चय हो सकता है जहां वह अपने समय और समाज की सांस्‍कृति‍क समालोचना में लगी रहती है। अब यह बेझि‍झक कहा जा सकता है कि‍ इस पठार में भाषि‍क सर्जना की तीन पीढ़ि‍यां काम कर चुकी हैं और उनमें कई लेखकों का कृति‍त्‍व बड़े फलक पर चर्चा में रहा है। इसके बावजूद सच यह भी है कि‍ कई नरगि‍सों को दीदावर का इंतजार है और कई जरखेज चीजें उपेक्षा के अंधेरे कोनों में छुपी हैं। पूछा जा सकता है कि‍ आखि‍रश ऐसा क्‍यों हो रहा है। दरअसल यह सवाल खासा वि‍वादग्रस्‍त है और उसके तमाम ओर-छोर एक-दूसरे से बेतरतीब उलझे हुए हैं।
सभी जानते हैं कि‍ आजादी के बाद हिन्दी भाषा-साहित् की नियामक गतिविधियों का केन्द्र बनारस-इलाहाबाद-पटना-कोलकाता से उठ कर दिल्ली में अन्तरि होता गया। धीरे-धीरे दिल्ली का दबदबा बढ़ता गया और जयपुर-भोपाल जैसे नये केन्द्र भी बने। तो भी आज की तारीख में दिल्ली का कोई प्रतियोगी नहीं दिखता। हिन्दी पट्टी के दूर-दराज इलाकों से नये-पुराने कलमकार राजधानी में शिफ्ट हो रहे। कहते हैं किभाषा की प्रगति‍ और विकास के लि किसी महानगर की छतरी मददगार होती है। अनेक दूसरी भाषाओं के भौगोलि संदर्भों को ध्यान में रखा जाये तो इस राय में कोई खोट नजर नहीं आती। लेकि सत्ता खुद कई संकट खड़े कर लेती है और यही हिन्दी रचनाशीलता की पहचान का संकट भी है। हिन्दी की बहुसंख्यक पत्र-पत्रिकाएं राजधानी से संचालि होती हैं। यही स्थितिपुस्तक प्रकाशन जगत की भी है। नि‍‍र्णायक संख्या में जाने-माने प्रकाशक दिल्ली में बैठे हैं। ऐसी भूभौतिकी में अगर हिन्दी सर्जना की दशा-दिशा राजधानी दिल्ली से संचालि निर्देशि होती हो तो इसमें अचरज की बहुत गुंजाइश नहीं। आज की तारीख में प्रकाशन, मूल्‍यांकन, उत्पादन और वितरण तंत्र पर राजधानी का अप्रत्यक्ष एकाधि‍कार है और दिल्ली दरबार के प्रादेशि क्षत्रप और क्षेत्रीय एजेंट उसके वर्चस् की पहरेदारी करते हैं। ऐसे माहौल में अपनी पहचान बनाने में अधि‍क सफल वही लोग हैं जि‍नके तार मजबूत खूंटों से बंधे हैं।
चाहे ऐसे खूंटे लेखक संगठन सुलभ करते हों या वि‍श्‍ववि‍द्यालय परि‍सर के संपर्क सूत्र या फि‍र संपादकों-आलोचकों की गुटबाज जमात। आम तौर पर बहुसंख्‍यक हि‍न्‍दी लेखक ऐसे अभयारण्‍यों को रेस्‍ट हाउस की इज्‍जत नहीं देते और नतीजतन अपनी मान्‍यता के लि‍ए संघर्षशील बने रहने को अभि‍शप्‍त बने रहते हैं।