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Saturday, December 19, 2009

ग्रीन रूम की हलचलों का कोलाज-2

तीन रोज पहले, पि‍छली डि‍स्‍पैच में, ग्रीन रूम की हलचलों का प्रसंग अधूरा रह गया था। अभी उसे पूरा समेटने की कोशि‍श्‍ा करूंगा। उस दि‍न अपनी प्राप्‍ति‍यों के बैलेंस शीट (!/?) की बात होती रह गयी थी। वैसे मेरे लि‍ए इसे इशू बनाने की कोई खास तुक नहीं है चूंकि‍ मेरे काम के दायरे का बड़ा हि‍स्‍सा अभी तक मन के वर्कशॉप में बंद है और उसे खुली हवा- धूप और बाजार के हवाले करना बाकी है। खेद है कि‍ दुनि‍या-जहान की चर्चा में यह बात छूट-सी गयी कि‍ ग्रीन रूम की तैयारि‍यों का जायजा भी नि‍हायत जरूरी है। तो आइये, मेरे साथ दो पल के लि‍ए हो लीजि‍ए। यह मेरा अन्‍तरकक्ष है यानी मेरी प्रयोगशाला। वहां चटख उजाला और नीम अंधेरा एक साथ रहते हैं। वहां आप एक कोने में खाली सफों की बेशुमार डायरि‍यां देख सकते हैं। अब तक मैं यह खयाली पुलाव पकाता रह गया कि‍ उन सबमें अपने सबसे अहम व खास अनुभवों का बयान दर्ज कर कभी अपनी यात्रा के अर्थ तलाशूंगा। वहां एक रैक ऐसा है जि‍समें मुड़ी-तुड़ी लंबि‍त परि‍योजनाएं, यादगार लगते लम्‍हों में तराशे गये नाजुक खयाल, 'बाद में' शीर्षक के तहत जुटायी गयी कथा सामग्री, 'इत्‍मीनान से' नाम का वि‍चार कोश्‍ा और बेतरतीब नक्‍शों का ए‍क भरापुरा अलबम साबुत बचा हुआ है।
अपने मन-मि‍जाज की यह बुनावट मेरी समझ में अब तलक नहीं आयी कि‍ आखि‍रश क्‍यों मैं अपनी लेखन प्रक्रि‍या की व्‍यस्‍तता के क्षणों में कौंध की तरह सतह पर उगे कई वि‍चारों को तत्‍काल शब्‍द-श्रृंखला में नहीं पि‍रोता। कुछ लि‍खते हुए जब और जो कुछ मुझे महत्‍वपूर्ण लगता रहा, उसे 'बाद में' , 'फि‍र कभी' या 'इत्‍मीनान से' कि‍सी खास जगह उपयोग में लाने के नाम पर अप्रयुक्‍त छोड़ता आया हूं।
इस तरह मेरे इस अजायबघर में अनकि‍ये कामों की एक लंबी तालि‍का अजन्‍मी रह गयी है। इस प्रसूति‍ कक्ष में भावी शि‍शुओं के कई पालने पड़े हैं- जैसे 'कभी' लि‍खने के लि‍ए अनेक कॉलमों के नाम, संपादन के लि‍ए पत्र-पत्रि‍काओं के नये शब्‍द शीर्ष, पुस्‍तकों के लि‍ए अध्‍यायों की सि‍नौप्‍सि‍स, आलेखों के लि‍ए उपयुक्‍त वि‍षय-शीर्ष, अनलि‍खे उपन्‍यासों के कथानक और प्‍लॉट, कहानि‍यों के भ्रूण की तरह सैकड़ों चरि‍त्र और मॉडल ।
इधर कुछ समय से यह चि‍न्‍ता घेरने लगी है कि‍ उम्र और सेहत के मौजूदा पड़ाव पर मैं इतने सारे काम भला कैसे पूरे कर सकूंगा ! सच तो यह भी है कि‍ मेरे काम का दायरा सि‍र्फ अनुभव और सृजन या वि‍चार और अभि‍व्‍यक्‍ति‍ तक सीमि‍त नहीं, बल्‍कि‍ घर-बाहर की ढेर सारी उलझनों की पेंचीदा चुनौति‍यों तक पसरा है। यकीनन, यहां मैं कि‍सी तरह की अत्‍युक्‍ति की टेक नहीं ले रहा। मुझे नि‍जी तौर पर नजदीक से जानने वाले लोग इस प्रश्‍न-वृत्‍त की यथोचि‍त जानकारी रखते हैं। प्रेस व्‍यवसाय में डेढ़ दशक गुजार कर भी अपनी पत्रि‍का इस आशंका से शुरू नहीं की उसकी नि‍रन्‍तरता पूंजी के अभाव में मुझसे नि‍भेगी कैसे ! और कि‍ संपादन के तनावी चक्‍कर में मेरा अपना लेखन बाधि‍त होता रहेगा। इसी तरह शुरू के दि‍नों में बहुत समय तक मैं इस पसोपेश में पड़ा रहता था कि‍ कथि‍त बड़ी पत्रि‍काओं को रचनाएं और प्रकाशन गृहों को अपनी पुस्‍तक पांडुलि‍पि‍यां भेजूं या नहीं भेजूं ! और अपने शहर में, कि‍सी आयोजन के सि‍लसि‍ले में आये जाने-माने लेखकों से मि‍लने से कतराता रहा कि‍ बतौर लेखक मेरे पास बताने को अधि‍क कुछ नहीं है। इस डर या साहसहीनता के वि‍श्‍लेषण के लि‍ए मैं आपको कोई सूत्र नहीं बतला सकता।
इस मनोभाव के ठीक उल्‍टे मैंने जीवन में कई बार जोखि‍म वाले कदम उठाये हैं। एमए करते समय स्‍वर्णपदक का संभावि‍त प्रत्‍याशी होने के बावजूद, अपने शहर में बने रहने की मजबूरी के कारण, अन्‍ति‍म परीक्षा शुरू होने से अट्ठारह दि‍न पहले केन्‍द्रीय सरकार के महालेखाकार कार्यालय की नौकरी ज्‍वायन कर ली। एमए की परीक्षा में अस्‍त-व्‍यस्‍त मन:स्‍थि‍ति‍ में शामि‍ल होने के कारण रि‍जल्‍ट अपेक्षि‍त नहीं हुआ तो वि‍श्‍ववि‍द्यालय शि‍क्षक की यथेष्‍ट पात्रता होने के बावजूद मैंने कभी आवेदन तक नहीं दि‍या। सरकारी सेवा में गुलामी के बीस साल जैसे-तैसे पूरा होते ही बयालीस की उम्र में मैंने स्‍वैच्‍छि‍क पेंशन के प्रावधान की मदद ले ली। फि‍र चौदह वर्षों तक प्रेस व्‍यवसाय में टि‍क कर, संघर्ष को कामयाबी के पड़ाव पर पहुंचा कर भी, वह सुखद नहीं लगा तो उसे अपने एक नजदीकी रि‍श्‍तेदार को उपहार के बतौर सौंप दि‍या। नौकरी और व्‍यवसाय दोनों से मुक्‍त होने के बाद कई साल तक खुद को खेतीबारी में आजमाने की कोशि‍श की। इस पूरे दौर में साहि‍त्‍य, समाज, संस्‍कृति‍ और राजनीति‍ की गति‍वि‍धि‍यों में कमोबेश नि‍ष्‍ठापूर्ण नि‍रन्‍तर भागीदारी चलती रही। फि‍र इन सबसे वि‍रक्‍त होकर फ्रीलांसि‍ग की ओर मुड़ गया। आखि‍रश अब बेफि‍क्र मलूकदास के रास्‍ते पर चलने की नाकाम कोशि‍श कर रहा हूं। लक्ष्‍मी के आने के रास्‍तों को एक के बाद एक बंद करते हुए अब कभी-कभी यह आशंका घेर लेती है कि‍ अगर आर्थिक तंगी से गुजरते हुए कभी कि‍सी से मदद मांगनी पड़ी तो बहुत झि‍झक होगी। ऐसा करना पड़ा तो लोग कहेंगे - देखो, यह आदमी कल तेज दौड़ रहा था, फि‍र जाने कि‍स सनक में इसने सरकारी नौकरी छोड़ दी, दो-दो मैनेजरों वाले जमे-जमाये प्रेस को बंद कर दि‍या, दो दैनि‍कों में मि‍ले काम के अवसरों को नाम-दाम के बहाने ठोकर मार दी, और आज लोगों से सहायता मांग रहा है।
शुक्र है कि‍ अब तक ऐसा दि‍न देखने की नौबत नहीं आयी। यह जोखि‍म उस आदमी ने उठाये जि‍सका बचपन अक्षरश: बेहद गरीबी और अभावों के बीच पि‍सते हुए गुजरा। तीन साल की उम्र में पि‍ता का साया छि‍न गया। उस समय बड़े भाई की वय थी सि‍र्फ आठ साल। कोई सगा सहारा नहीं था -न दादा, न चाचा। जैसे-तैसे स्‍कूली पढ़ाई पूरी हुई तो पहली बार सोलह साल की उम्र में पांवों को पहली चप्‍पल नसीब हुई। बीए में दाखि‍ला लेने के बाद मां के हाथ के सि‍ले कुरते-पाजामे की जगह पतलून पहनने को मि‍ली। एमए करने के तीस साल बाद जि‍द में पीएचडी की डि‍ग्री हासि‍ल की। चूंकि‍ अध्‍यापकी से अपना कोई कारोबारी नाता नहीं था, तो उस डि‍ग्री का कोई उपयोग न होना था, न हुआ। इस तरह समग्रता में वि‍गत को देखूं तो घटनाओं-प्रसंगों की तफसील में गये बगैर यही बता सकता हूं कि‍ परि‍वर्तन के हर मोड़ पर असुरक्षा का त्रास परछाईं की तरह मेरे साथ रहा। आज भी कुछ अलग कि‍स्‍म की असुरक्षा मेरी सहचरी है। लेकि‍न यह आत्‍मचर्चा यहीं रोकता हूं। अवान्‍तर प्रसंग फि‍र कभी।

Thursday, December 17, 2009

ग्रीन रूम की हलचलों का कोलाज

जीवन और रंगमंच का सादृश्‍य बताने वाला रूपक इतना जाना-पहचाना हो चुका है कि‍ उसमें नि‍हि‍त अभि‍व्‍यक्‍ि‍त के सारे अर्थ अनगि‍नत बार अनावृत्‍त हो चुके हैं। यादों के आईने में अपना अक्‍स देखने का प्रतीक भी हजारों बार दुहराया जा कर अपनी अर्थसंपदा से रि‍क्‍त हो गया लगता है। तो भी आज अपने अन्‍तरंग को रोशन करने के लि‍ए इनसे बेहतर कोई वि‍कल्‍प मैं खोज नहीं पा रहा। अभी मैं जो कुछ कहने जा रहा हूं, पता नहीं, उसे आप कि‍स खाने में रखेंगे- आत्‍मालाप, संताप या प्रलाप। बहरहाल मैं आपको आश्‍वस्‍त करना चाहता हूं कि‍ मैं अपने बारे में जो कुछ कहूंगा, अपनी समझ से सच कहूंगा, और सच के सि‍वा कुछ और नहीं कहूंगा। हां, झूठ से बचने के लि‍ए मौन रह जाउं, तो आप अन्‍यथा नही लें। उसे मेरी आत्‍मस्‍वीकृति‍ की साहसहीनता समझ लें तो मुझे जरा भी एतराज नहीं होगा।
आप जानते हैं कि‍ अपनी हि‍न्‍दी इतने बड़े भौगोलि‍क क्षेत्र में पसरी हुई भाषा है कि‍ उसके एक छोर पर चमकने वाली बि‍जली की कौंध भी दूसरे कि‍नारे तक नहीं पहुंच पाती। सार्वदेशि‍क वि‍तरण की साहि‍त्‍यजीवी पत्रि‍काओं के इस घोर संकट काल में, बेशुमार अनि‍यतकालीन पत्रि‍काओं की बाढ़ के बावजूद, यह एक पीड़ादायी अनुभव है कि‍ आखि‍रश क्‍यों अनेक कवि‍-लेखक वि‍पुल और बेहतर लि‍ख कर भी चर्चाओं के हाशि‍ए में सि‍मटे पड़े हैं जबकि‍ कुछेक स्‍टार रचनाकारों का कचरा भी पूरे तामझाम के साथ नुमाइशी अंदाज में पेश कि‍या जा रहा ! पता नहीं औरों के बहाने कब तक अपने खास इष्‍टमि‍त्रों का कीर्ति‍गान चलता रहेगा। लि‍हाजा यह कहना कुछ गलत नहीं होगा कि‍ पि‍छले काफी समय से आलोचना और समीक्षा का समूचा परि‍दृश्‍य तर्कहीन चक्रव्‍यूह की धुंध में डूबा है। नतीजतन मैं यह मान कर चलता हूं कि‍ आप मेरे नाम वाले लेखक के बारे में इतना कम जानते होंगे कि‍ उसे अपनी ओर से तमाम जरूरी सूचनाएं दे कर अपने बारे में लगभग सबकुछ खुद बताना पड़ेगा। वैसे मैं मानता हूं कि‍ रचना से इतर कोई कैफि‍यत रचनाकार के लि‍ए बैसाखी नहीं बन सकती। क्‍या लेखन के पीछे की तैयारि‍यों का ब्‍योरेवार लेखाजोखा क्षेपक की तरह एक आरोपि‍त बोझ नहीं है ? क्‍या मेज पर या पंगत में व्‍यंजन परोसने के बाद प्रस्‍तुतकर्ता के लि‍ए चूल्‍हा-चौका-भंडार की नुमाइश जरूरी है ?
यह सब पढ़ते हुए आपको लग सकता है कि‍ यह एक वि‍क्षुब्‍ध शब्‍दकर्मी का एकालापी संवाद है। लकि‍न वास्‍तव में ऐसा है नहीं। यह कि‍सी नि‍जी मामले की सुनवाई की अर्जी तो हरगि‍ज नहीं। यह हि‍न्‍दी संसार की मौजूदा दशा-दि‍शा का अपना आकलन है जि‍ससे आप सौ फी सदी असहमत रह सकते हैं।
मैंने इसी सि‍तम्‍बर में उम्र के उनहत्‍तर साल पूरे कि‍ये हैं। हि‍न्‍दी पत्र-पत्रि‍‍काओं-पुस्‍तकों की दुनि‍या में
अपनी रचनात्‍मक उपस्‍थि‍ति‍ का जि‍क्र करूं तो बताना पड़ेगा कि‍ पि‍छले सैंतालीस वर्षों से शीर्षस्‍थ पत्र-पत्रि‍काओं में मैं कई वि‍धाओं में लि‍खता आ रहा हूं। यथा- कवि‍ता, गीत, कहानी, संस्‍मरण, व्‍यंग्‍य, लघुकथा, समीक्षा, आलोचना-वि‍वेचना परक आलेख व टि‍प्‍पणि‍यां, कॉलम आदि‍। चाहे वे गुजरे जमाने की पत्र-पत्रि‍काएं हों (आर्यावर्त, कल्‍पना, माध्‍यम, कहानी, माया, मनोहर कहानि‍यां, नई धारा, ज्‍योत्‍स्‍ना, धर्मयुग, साप्‍ताहि‍क हि‍न्‍दुस्‍तान, स्‍थापना आदि‍) या आज भी जारी पत्रि‍काएं (जैसे-हंस, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, पहल, अक्षरा, अक्षर पर्व, साहि‍त्‍य अमृत, कल के लि‍ए, परि‍वेश, काव्‍यम, संबोधन, युद्धरत आम आदमी, कथाक्रम, कथाबि‍म्‍ब आदि‍ ) हों । इसी तरह जनसत्‍ता, हि‍न्‍दुस्‍तान, दैनि‍क जागरण, प्रभात खबर, लोकमत समाचार, समयान्‍तर, सामयि‍क वार्ता, रांची एक्‍सप्रेस, देशप्राण जैसे दैनि‍कों, पाक्षि‍कों, साप्‍ताहि‍कों में सामयि‍क प्रश्‍नों पर लि‍खे-छपे आलेखों व टि‍प्‍पणि‍यों की संख्‍या बड़ी है। कि‍ताबों की दुनि‍या की ओर रूख करूं तो बता सकता हूं कि‍ अब तक आठ कवि‍ता संकलन, तीन कहानी संकलन, दो आलोचना पुस्‍‍तकें, दो गीत संकलन, नाटक व समाज दर्शन की एक-एक पुस्‍तक प्रकाशि‍त हैं। इनमें अधि‍संख्‍य पुस्‍तकें हि‍न्‍दी के सुपरि‍चि‍त प्रकाशन गृहों से आयी हैं। दर्जन भर सम्‍पादि‍त पुस्‍तकें भी आ चुकी हैं और लगभग तीन दर्जन से अधि‍क पुस्‍तकों की भूमि‍का लि‍खने का सुयोग भी मि‍ला है। अपनी कई रचनाएं गुजराती, कन्‍नड़, कुड़ुख और नागपुरी भाषाओं में अनूदि‍त हुई हैं। संपादन के अनुभवों को याद करना चाहूं तो बताना पड़ेगा कि‍ चार अनि‍यतकालीन पत्रि‍काओं - अभि‍ज्ञान, क्रमश:, प्रसंग, वर्तमान संदर्भ - के लगभग बीसेक अंकों के अलावा कथादेश मासि‍क के कि‍ट्टू केन्‍द्रि‍त अंक के संपादन से भी जुड़ा। झारखंड प्रदेश के दो दैनि‍क पत्रों -देशप्राण और झारखंड जागरण- के संपादकीय वि‍भाग से जुड़ाव के चंद महीने भी स्‍मरणीय लगते हैं।
इसके बावजूद हि‍न्‍दी लेखन के सामयि‍क प्रवाह में अपनी कोई नाव मुझे ति‍रती नजर नहीं आती। लेकि‍न मैं यह मानता हूं कि‍ यह अकेली मेरी नि‍यति‍ नहीं है। आलोचकों-समीक्षकों- स्‍तम्‍भकारों-संपादकों के चौखंभा राज में सिर्फ रचना की बैसाखी के सहारे तन कर खड़ा होना वाकई मुश्‍कि‍ल है। यूं भी कवि‍ता-कहानी का क्षेत्र साहि‍त्‍य का व्‍यस्‍ततम चौराहा है जि‍सके आरपार गुजरते हुए अगर आपके हाथ में कोई बैनर, झंडा-पताका या कि‍सी कद्दावर का कटआउट नहीं हो तो आप मार्च पास्‍ट में शामि‍ल नहीं माने जायेंगे। नतीजतन आपकी आइडेंटीटी लंबे समय तक अनि‍श्‍चि‍त बनी रह सकती है। सच है कि‍ हर रोज इस जनपथ पर अभि‍व्‍यक्‍ति‍ का कोरस गाते हुए कि‍तने लोग आते हैं और कि‍तने यूं ही गुमनाम गुजर जाते हैं ! कोई यातायात प्रबंधक इसका हि‍साब नहीं रखता। साथि‍यो, आप चाहे जि‍तना सार्थक लि‍खते रहें, चाहे जि‍तनी सुनाम जगहों पर छप लें, मगर यह बात हरगि‍ज नहीं भूलें कि‍ सि‍र्फ इस जमापूंजी की बि‍सात पर आपकी खोज-खबर लेने कोई नहीं आयेगा। शब्‍द संसार का राजमार्ग सि‍द्ध रणबांकुरों के पहरे में है और वहां अजनबी कलमकारों की पैठ लेवी चुकाये बि‍ना नामुमकि‍न है। लि‍हाजा पहले अपने पीआर की सेहत दुरूस्‍त कर लें, फि‍र शब्‍दशाला के अखाड़े में बले बले करना आसान रहेगा। आमीन।