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Thursday, December 17, 2009

ग्रीन रूम की हलचलों का कोलाज

जीवन और रंगमंच का सादृश्‍य बताने वाला रूपक इतना जाना-पहचाना हो चुका है कि‍ उसमें नि‍हि‍त अभि‍व्‍यक्‍ि‍त के सारे अर्थ अनगि‍नत बार अनावृत्‍त हो चुके हैं। यादों के आईने में अपना अक्‍स देखने का प्रतीक भी हजारों बार दुहराया जा कर अपनी अर्थसंपदा से रि‍क्‍त हो गया लगता है। तो भी आज अपने अन्‍तरंग को रोशन करने के लि‍ए इनसे बेहतर कोई वि‍कल्‍प मैं खोज नहीं पा रहा। अभी मैं जो कुछ कहने जा रहा हूं, पता नहीं, उसे आप कि‍स खाने में रखेंगे- आत्‍मालाप, संताप या प्रलाप। बहरहाल मैं आपको आश्‍वस्‍त करना चाहता हूं कि‍ मैं अपने बारे में जो कुछ कहूंगा, अपनी समझ से सच कहूंगा, और सच के सि‍वा कुछ और नहीं कहूंगा। हां, झूठ से बचने के लि‍ए मौन रह जाउं, तो आप अन्‍यथा नही लें। उसे मेरी आत्‍मस्‍वीकृति‍ की साहसहीनता समझ लें तो मुझे जरा भी एतराज नहीं होगा।
आप जानते हैं कि‍ अपनी हि‍न्‍दी इतने बड़े भौगोलि‍क क्षेत्र में पसरी हुई भाषा है कि‍ उसके एक छोर पर चमकने वाली बि‍जली की कौंध भी दूसरे कि‍नारे तक नहीं पहुंच पाती। सार्वदेशि‍क वि‍तरण की साहि‍त्‍यजीवी पत्रि‍काओं के इस घोर संकट काल में, बेशुमार अनि‍यतकालीन पत्रि‍काओं की बाढ़ के बावजूद, यह एक पीड़ादायी अनुभव है कि‍ आखि‍रश क्‍यों अनेक कवि‍-लेखक वि‍पुल और बेहतर लि‍ख कर भी चर्चाओं के हाशि‍ए में सि‍मटे पड़े हैं जबकि‍ कुछेक स्‍टार रचनाकारों का कचरा भी पूरे तामझाम के साथ नुमाइशी अंदाज में पेश कि‍या जा रहा ! पता नहीं औरों के बहाने कब तक अपने खास इष्‍टमि‍त्रों का कीर्ति‍गान चलता रहेगा। लि‍हाजा यह कहना कुछ गलत नहीं होगा कि‍ पि‍छले काफी समय से आलोचना और समीक्षा का समूचा परि‍दृश्‍य तर्कहीन चक्रव्‍यूह की धुंध में डूबा है। नतीजतन मैं यह मान कर चलता हूं कि‍ आप मेरे नाम वाले लेखक के बारे में इतना कम जानते होंगे कि‍ उसे अपनी ओर से तमाम जरूरी सूचनाएं दे कर अपने बारे में लगभग सबकुछ खुद बताना पड़ेगा। वैसे मैं मानता हूं कि‍ रचना से इतर कोई कैफि‍यत रचनाकार के लि‍ए बैसाखी नहीं बन सकती। क्‍या लेखन के पीछे की तैयारि‍यों का ब्‍योरेवार लेखाजोखा क्षेपक की तरह एक आरोपि‍त बोझ नहीं है ? क्‍या मेज पर या पंगत में व्‍यंजन परोसने के बाद प्रस्‍तुतकर्ता के लि‍ए चूल्‍हा-चौका-भंडार की नुमाइश जरूरी है ?
यह सब पढ़ते हुए आपको लग सकता है कि‍ यह एक वि‍क्षुब्‍ध शब्‍दकर्मी का एकालापी संवाद है। लकि‍न वास्‍तव में ऐसा है नहीं। यह कि‍सी नि‍जी मामले की सुनवाई की अर्जी तो हरगि‍ज नहीं। यह हि‍न्‍दी संसार की मौजूदा दशा-दि‍शा का अपना आकलन है जि‍ससे आप सौ फी सदी असहमत रह सकते हैं।
मैंने इसी सि‍तम्‍बर में उम्र के उनहत्‍तर साल पूरे कि‍ये हैं। हि‍न्‍दी पत्र-पत्रि‍‍काओं-पुस्‍तकों की दुनि‍या में
अपनी रचनात्‍मक उपस्‍थि‍ति‍ का जि‍क्र करूं तो बताना पड़ेगा कि‍ पि‍छले सैंतालीस वर्षों से शीर्षस्‍थ पत्र-पत्रि‍काओं में मैं कई वि‍धाओं में लि‍खता आ रहा हूं। यथा- कवि‍ता, गीत, कहानी, संस्‍मरण, व्‍यंग्‍य, लघुकथा, समीक्षा, आलोचना-वि‍वेचना परक आलेख व टि‍प्‍पणि‍यां, कॉलम आदि‍। चाहे वे गुजरे जमाने की पत्र-पत्रि‍काएं हों (आर्यावर्त, कल्‍पना, माध्‍यम, कहानी, माया, मनोहर कहानि‍यां, नई धारा, ज्‍योत्‍स्‍ना, धर्मयुग, साप्‍ताहि‍क हि‍न्‍दुस्‍तान, स्‍थापना आदि‍) या आज भी जारी पत्रि‍काएं (जैसे-हंस, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, पहल, अक्षरा, अक्षर पर्व, साहि‍त्‍य अमृत, कल के लि‍ए, परि‍वेश, काव्‍यम, संबोधन, युद्धरत आम आदमी, कथाक्रम, कथाबि‍म्‍ब आदि‍ ) हों । इसी तरह जनसत्‍ता, हि‍न्‍दुस्‍तान, दैनि‍क जागरण, प्रभात खबर, लोकमत समाचार, समयान्‍तर, सामयि‍क वार्ता, रांची एक्‍सप्रेस, देशप्राण जैसे दैनि‍कों, पाक्षि‍कों, साप्‍ताहि‍कों में सामयि‍क प्रश्‍नों पर लि‍खे-छपे आलेखों व टि‍प्‍पणि‍यों की संख्‍या बड़ी है। कि‍ताबों की दुनि‍या की ओर रूख करूं तो बता सकता हूं कि‍ अब तक आठ कवि‍ता संकलन, तीन कहानी संकलन, दो आलोचना पुस्‍‍तकें, दो गीत संकलन, नाटक व समाज दर्शन की एक-एक पुस्‍तक प्रकाशि‍त हैं। इनमें अधि‍संख्‍य पुस्‍तकें हि‍न्‍दी के सुपरि‍चि‍त प्रकाशन गृहों से आयी हैं। दर्जन भर सम्‍पादि‍त पुस्‍तकें भी आ चुकी हैं और लगभग तीन दर्जन से अधि‍क पुस्‍तकों की भूमि‍का लि‍खने का सुयोग भी मि‍ला है। अपनी कई रचनाएं गुजराती, कन्‍नड़, कुड़ुख और नागपुरी भाषाओं में अनूदि‍त हुई हैं। संपादन के अनुभवों को याद करना चाहूं तो बताना पड़ेगा कि‍ चार अनि‍यतकालीन पत्रि‍काओं - अभि‍ज्ञान, क्रमश:, प्रसंग, वर्तमान संदर्भ - के लगभग बीसेक अंकों के अलावा कथादेश मासि‍क के कि‍ट्टू केन्‍द्रि‍त अंक के संपादन से भी जुड़ा। झारखंड प्रदेश के दो दैनि‍क पत्रों -देशप्राण और झारखंड जागरण- के संपादकीय वि‍भाग से जुड़ाव के चंद महीने भी स्‍मरणीय लगते हैं।
इसके बावजूद हि‍न्‍दी लेखन के सामयि‍क प्रवाह में अपनी कोई नाव मुझे ति‍रती नजर नहीं आती। लेकि‍न मैं यह मानता हूं कि‍ यह अकेली मेरी नि‍यति‍ नहीं है। आलोचकों-समीक्षकों- स्‍तम्‍भकारों-संपादकों के चौखंभा राज में सिर्फ रचना की बैसाखी के सहारे तन कर खड़ा होना वाकई मुश्‍कि‍ल है। यूं भी कवि‍ता-कहानी का क्षेत्र साहि‍त्‍य का व्‍यस्‍ततम चौराहा है जि‍सके आरपार गुजरते हुए अगर आपके हाथ में कोई बैनर, झंडा-पताका या कि‍सी कद्दावर का कटआउट नहीं हो तो आप मार्च पास्‍ट में शामि‍ल नहीं माने जायेंगे। नतीजतन आपकी आइडेंटीटी लंबे समय तक अनि‍श्‍चि‍त बनी रह सकती है। सच है कि‍ हर रोज इस जनपथ पर अभि‍व्‍यक्‍ति‍ का कोरस गाते हुए कि‍तने लोग आते हैं और कि‍तने यूं ही गुमनाम गुजर जाते हैं ! कोई यातायात प्रबंधक इसका हि‍साब नहीं रखता। साथि‍यो, आप चाहे जि‍तना सार्थक लि‍खते रहें, चाहे जि‍तनी सुनाम जगहों पर छप लें, मगर यह बात हरगि‍ज नहीं भूलें कि‍ सि‍र्फ इस जमापूंजी की बि‍सात पर आपकी खोज-खबर लेने कोई नहीं आयेगा। शब्‍द संसार का राजमार्ग सि‍द्ध रणबांकुरों के पहरे में है और वहां अजनबी कलमकारों की पैठ लेवी चुकाये बि‍ना नामुमकि‍न है। लि‍हाजा पहले अपने पीआर की सेहत दुरूस्‍त कर लें, फि‍र शब्‍दशाला के अखाड़े में बले बले करना आसान रहेगा। आमीन।









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