पिछले दिनों पद्म पुरस्कारों की घोषणा के बाद मीडिया के जरिए विवाद के कई मुद्दे तीखे स्वरों में उभरे, लेकिन डॉ.रामदयाल मुंडा को (कला वर्ग में) मिले पद्मश्री सम्मान की खबर पर आदिवासी क्षेत्रों में स्वागतम की लहर निर्विवाद रूप में प्रसारित हुई। उस वक्त वे दिल्ली में थे और जब वे पहली फरवरी को सेवा विमान से रांची पहुंचे तो एयरोड्राम पर उनके स्वागत में दर्जनों लोक नर्तकों समेत सृजन और विचार क्षेत्र से जुड़े़ अनेक लोगों की उपस्थिति से यह संदेश मुखर हुआ कि इस सम्मान से लोकमन को समुदायिक स्तर पर गौरवान्वित होने का सुख मिला। आशा बनती है कि अब आदिवासी कला-संस्कृति की समृद्धि की ओर लोगों का ध्यान पहले से अधिक जायेगा।
जहां तक पिछले दो दशकों की अवधि में हिन्दी संसार में आदिवासी लेखकों की पैठ और पहचान की बात है, यह बेहिचक बताया जा सकता है कि लेखन-प्रकाशन की बहुमुखी हलचलों के बूते झारखंड क्षेत्र की प्रतिभाओं के पंख खुले हैं और कई समर्थ संभावनाओं की उपलिब्धयों को आशंसा भी मिली है। नागपुरी, कुरमाली और खोरठा जैसी क्षेत्रीय भाषाओं और मुंडारी, कुडु़ख, संताली और खड़िया जैसी जनजातीय भाषाओं में साहित्य की प्रमुख विधाओं में लगातार लिखा-पढ़ा जा रहा है, किताबें छप रही हैं, पत्रिकाएं निकल रही हैं। कल-परसों तक शिक्षित आदिवासी जन हिन्दी भाषा-साहित्य के नियमित पाठक भर थे, अब उनमें कई, बल्कि अनेक, लोग हिन्दी के लेखक हैं। मंच, मीडिया, मैगजिन और किताबों के मेले में उनके पांव मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं। सृजन और विचार की यह सतरंगी दुनिया कभी तो कोरस के सामूहिक अंदाज में साकार होती है तो कभी एकल कृतित्व की उपलब्धियों के कारण जरखेज व मायनीखेज बन जाती है। समग्रता में देखें तो आज की तारीख में आदिवासी कलम की धार आंचलिक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर तक असरदार बन चुकी है।
इस बहुभाषी पठारी इलाके में समाज-स्िथति यह है कि नौ क्षेत्रीय भाषाओं में विश्वविद्यालय स्तर पर अध्ययन-अघ्यापन का सिलसिला अपने रजत जयन्ती वर्ष को पार कर चुका है। लिहाजा इस अंचल की मातृभाषाओं में लिपिबद्ध साहित्य के लेखन-प्रकाशन की गति तेज होती जा रही है। तो भी इस नयी प्रगति के समान्तर समूचे पठार में माध्यमिक व उच्चतर शिक्षा का सर्वमान्य माध्यम आज भी हिन्दी ही है। लंबे समय से प्रशासन, व्यापार, सर्वाजनिक जीवन और संचार माध्यम की भाषा होने के कारण उसकी एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूमिका भी रही है। धीरे-धीरे वह झारखंडी समाज-संस्कृति-राजनीति की अभिव्यक्ति की भाषा बनती जा रही है। कल तक हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के विशाल पाठक परिवार के अनिगनत सदस्य आदिवासी समाज से आते थे, आज का सच यह है कि उनमें कई हिन्दी के सुपरिचित व प्रतिष्ठित लेखकों में शुमार किये जाते हैं।
इस प्रगति के पिछले दो दशकों में आदिवासी लेखकों का कृतित्व क्षेत्रीय हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में लगातार सामने आता रहा है, आकाशवाणी और दूरदर्शन के कार्यक्रमों में समुचित आमंत्रण तथा प्रतिनिधित्व पा रहा है। उनमें अधिकतर लोग प्रादेशिक स्तर पर जानेमाने लेखक के बतौर पहचाने व सराहे जा रहे हैं जबकि कुछेक रचनाकारों की कलम की धार हिन्दी संसार की मुख्य धारा में घुलमिल गयी है। इस नवोन्मेष के निशान वैचारिक और सृजनात्मक दोनों किस्म के लेखन में देखे जा सकते हैं। साहित्य और पत्रकारिता में यह दखल पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं की मार्फत स्वयंसिद्ध है। अब तक झारखंड में जिन आदिवासी हिन्दी लेखकों की पुख्ता पहचान बन चुकी है, उनमें आदित्य मित्र संताली, एलिस एक्का,पीटर शान्ति नवरंगी, रामदयाल मुंडा, निर्मला पुतुल, रोज केरकेट्टा, मंजु ज्योत्स्ना, पीटर पॉल एक्का, जेम्स टोप्पो, हेराल्ड एस. टोपनो, वाल्टर भेंगरा, मार्टिन जॉन अजनबी, ग्रेस कुजूर, महादेव टोप्पो, मोतीलाल, वासवी किड़ो, दयामनी बरला, सुनील मिंज, शिशिर टुडु, पुष्पा टेटे, जोवाकम तोपनो, जेवियर कुजूर, वंदना टेटे, सरिता सिंह बड़ाइक, शान्ति खलखो और फ्रांसिस्का कुजूर जैसे अनेक ख्यात-अल्पख्यात नाम याद किये जा सकते हैं। इनमें कई कलमकारों की सृजन यात्रा रूक गयी है, कई अन्य की अवरूद्ध या स्थगित है, और अनेक लोग पूरी लय व समर्पण के साथ आज भी गतिशील हैं। इस प्रसंग में स्मृतिशेष हेराल्ड एस. टोपनो जैसे अप्रतिम प्रतिभाशाली रचनाकार के कृतित्व को नहीं याद किया जाये तो वह इस विरासत के प्रति हमारे कोरे अज्ञान का सूचक होगा।
सृजन और विचार के क्षेत्र में झारखंड की आदिवासी कलम के अवदान के कई पक्ष और विधाएं हैं। पूरे विस्तार में शोधकर्मी निष्ठा के साथ संदर्भ सहित विमर्श का यह उपयुक्त अवसर नहीं है। लिहाजा उनके प्रमुख रूझानों और प्रस्तावकों की संक्षिप्त चर्चा यहां की जा रही है। पुस्तक संपादन के महत्व को स्वीकार करते हुए भी अगर सिर्फ पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े लोगों को याद करें तो साप्ताहिक 'ग्राम निर्माण' के संपादन से जुड़े आदित्य मित्र संताली सबसे पहले याद आते हैं। आज भी इस दायित्वपूर्ण कार्य से कई नाम जुड़े हैं। जैसे 'तरंग भारती' की कार्यकारी संपादक पुष्पा टेटे, 'देशज स्वर' से जुड़े सुनील मिंज, अखड़ा की वंदना टेटे और सांध्य दैनिक 'झारखंड न्यूज लाइन' के संपादक वरिष्ठ पत्रकार शिशिर टुडु। इस प्रदेश के विचारकोश को समय-समय पर अनेक धरतीपुत्रों ने समृद्ध किया है। लेकिन पत्र-पत्रिकाओं में जिनकी नियमित उपस्थिति से सर्वाजनिक प्रश्नों और समस्याओं को पर छाया धुंध का कोहरा छंटता रहा है, उनमें सबसे पहले याद आते हैं 'जंगल गाथा' से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले लेखक-पत्रकार हेराल्ड एस. टोपनो और बहुमुखी सृजनशीलता के धनी डॉ.रामदयाल मुंडा। सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण के लिहाज से एनई होरो, निर्मल मिंज, रोज केरकेट्टा, प्रभाकर तिर्की, सूर्य सिंह बेसरा और महादेव टोप्पो जैसे कई लोगों ने अपनी भागीदारी को बार बार अर्थपूर्ण बनाया है।
पत्रकारिता, जिसे अक्सर जल्दी में लिखा गया साहित्य भी कहा-माना जाता है, में विवेचना, साक्षात्कार या रिपोर्ताज की शैली में अपने संवाद को प्रभावी बनाने के लिहाज से वासवी, दयामनी बरला, सुनील मिंज और शिशिर टुडु अपने प्रतियोगियों पर भारी पड़ते हैं। यहां ऐसे तमाम कलमकारों की कोई मुकम्मल फेहरिस्त नहीं पेश की जा रही है, बल्कि चंद बानगियों और नुमाइंदों का जिक्र भर हो रहा है। लेकिन इन सबकी सोच और सरोकार की सीमाएं इस बिंदु पर समान दिखती हैं कि अपने वर्ग-समाज-राजनीति-संस्कृति से बाहर की दुनिया के मस्लों के बारे में ये लगभग खामोश दिखते हैं। बेशक इसी एप्रोच के चलते देश और दुनिया की बेहतरी के लिए इनकी चिन्ताएं और सपने अपने परिवेश तक सीमित हैं।
साहित्य लेखन की ओर रूख किया जाये तो कहना होगा आदिवासी रचनाशीलता की मुख्य विधाएं हैं-कविता, कहानी, उपन्यास और संस्मरण। आलोचना और व्यंग्य को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने की दृष्टि से बुदु उरांव और मंजु ज्योत्स्ना के नाम लिये जा सकते हैं, लेकिन यह जोड़ते हुए कि उनके काम का परिमाण अभी तक अल्प है। झारख्ांडी भाषाओं के नवोन्मेष के लिए समर्पित कृतिकारों की तालिका लंबी हो सकती है, तो भी पीटर शान्ति नवरंगी, रामदयाल मुंडा और हरि उरांव के नाम-काम भुलाये नहीं जा सकते। हिन्दी कविता में झारखंड का जो आदिवासी नाम सर्वाधिक जाना-पहचाना बन चुका है, वह है संताली कवयित्री निर्मला पुतुल का। उनकी कविता पुस्तक 'नगाड़े की तरह बजते शब्द' बहुत चर्चा में रही है। रामदयाल मुंडा के दो कविता संग्रह भी हिन्दी में खासे चर्चित हुए हैं - 'नदी और उसके संबंधी तथा अन्य नगीत' और 'वापसी, पुनर्मिलन और अन्य नगीत'। उनकी परवर्ती कविताओं में प्रकृति और मनुष्य के आदिम राग-विराग की जगह राजनीति और समाज की विसंगतियों ने ले ली है। 'कथन शालवन कगे अंतिम शाल का' और 'विकास का दर्द'जैसी उनकी कविताएं उजाड़ बनते झारखंड की व्यथा-कथा और विसंगतियों को उकेरती हैं। पिछले वर्षों में ग्रेस कुजूर, मोतीलाल, और महादेव टोप्पो की कई कविताएं भी खूब सराही गयीं। पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट लिखने वाले युवा कवियों-कवयित्रियों की कतार अब लंबी होती नजर आ रही है। झारखंड में लिखी जा रही आदिवासी कलम की हिन्दी कविता बृहत्तर हिन्दी पट्टी की शेष कविता से अपनी अलग पहचान जिस साझा रूझान से रेखांकित करती है, वह है प्रतीक चरित्रों और घटनाओं का संष्लिष्ट कथात्मक निवेश और प्रतिरोध के आंचलिक रंग। यहां वर्णित यथार्थ का अर्थ अमूर्त स्िथतियों का हवाई सर्वेक्षण और अखबारी समाज चेतना की अनुकृति कतई नहीं है।
कहानी विधा में आदिवासी कलम का कोई चर्चित कथाकार अभी तक नहीं उभरा, हालांकि कभी-कभार अच्छी कहानियां कई लोगों ने लिखी हैं। वाल्टर भेंगरा के दो कहानी संग्रह बहुत पहले छप चुके थे-'देने का सुख' और 'लौटती रेखाएं'। पीटर पाल एक्का के तीन कहानी संग्रह भी आठवें दशक में आ चुके थे-' खुला आसमान बंद दिशाएं', 'परती जमीन'और 'सोन पहाड़ी'। जेम्स टोप्पो का कहानी संग्रह भी उन्ही दिनों आया था-'शंख नदी भरी गेल'। मंजु ज्योत्स्ना का कहानी संग्रह 'जग गयी जमीन' छप कर भी यथेष्ट चर्चा नहीं जुटा पाया। एलिस एक्का की कहानियां 'आदिवासी' पत्रिका के पन्नों में ही सिमटी रह गयीं। रोज केरकेट्टा ने प्रमचंद की दस कहानियों का अपनी मातृभाषा खड़िया में अनुवाद किया और खुद भी 'भंवर' जैसी मजबूत कहानी लिखी, लकिन कथा विधा में ज्यादा टिक कर उन्होंने अधिक काम नहीं किया। उन दिनों से आज तक आदिवासी कथा लेखकों के एकल कहानी संग्रह का अकाल यहां जारी है। लेकिन कहानी विधा के साथ अगर उपन्यास को भी यहां संयुक्त कर दिया जाये, तो आदिवासी कथा साहित्य का भंडार अपेक्षया भरापुरा लग सकता है। अविस्मरणीय है कि हेराल्ड एस. टोपनो के अधूरे (प्रकाशित) उपन्यास को पढ़ते हुए एक विस्फोटक संभावना से भेंट होती है।
आठवें दशक में इस अंचल की आदिवासी कलम का पहला हिन्दी उपन्यास आया 'सुबह की शाम' और कथाकार थे वाल्टर भेगरा(उस समय तक 'तरूण' उपनाम के साथ लिखते हुए)। पिछले दशक में उनके तीन उपन्यास सत्यभारती प्रकाशन, रांची से आये-'तलाश', 'गैंग लीडर' और 'कच्ची कली'। लेकिन जिस उपन्यास की चर्चा पिछले दिनों अधिक हुई, वह है 'जंगल के गीत'। इस अंचल के वरिष्ठ उपन्यासकार पीटर पाल एक्का ने इस उपन्यास की मार्फत महान बिरसा के उलगुलान के संदेश को सामयिक संदर्भ में तुंबा टोली गांव के युवक करमा और उसकी प्रिया करमी के कथा वितान के जरिए अग्रसारित करने की कोशिश की है। इस उपन्यास से पहले उनका एक और उपन्यास 'मौन घाटी' शीर्षक से आ चुका था। फ्रांसिस्का कुजूर अपनी मातृभाषा कुडुख के साथ हिन्दी में भी कविताएं और कहानियां लगातार लिख रही हैं और अपने परिवेश की दुर्दशा के प्रति सजग संवेदना के लिए पढ़ी-सराही जा रही हैं।
झारखंड के अधिसंख्य आदिवासी कथाकारों की एक बड़ी मुश्किल यह जान पड़ती है कि वे आधुनिक लेखन के सामयिक रूझानों और शिल्प-सांचों से सुपरिचित नहीं लगते। उपन्यास की उनकी अवधारणा पुरानी कसौटियों पर टिकी मालूम पड़ती है। पिछले दो सौ वर्षों में पूरी दुनिया में उपन्यास विधा के कथा शिल्प के इतने संस्करण सामने आ चुके हैं कि उसमें संकलित अन्तर्वस्तु में समग्र जातीय जीवन का विस्तार समाहित हो सकता है। रॉल्फ फॉक्स ने जब उसे लोकतंत्रीय समाज का महाकाव्य कहा था तो उसके पीछे इस विधा की व्यापक अपील की क्षमताओं का यही आकलन मानक रहा होगा। समग्रता में देखें तो समकालीन लेखन परिदृश्य से उनके गहन परिचय के सुयोग से 'एक बंद समाज' की अन्त:क्रिया का दुर्लभ सिलसिला शुरू हो सकता है। इस तरह झारखंडी भाषाओं के कथा साहित्य में,और हिन्दी में भी, वस्तु कथन या प्रस्तुति का नया अंदाज एक बड़े दायरे को आन्दोलित करने में समर्थ भी हो सकता है। अन्तत: उपन्यास कहानियों का गुच्छा भर नहीं होता।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि आज की तारीख में आदिवासी कलम की कथाकृतियां कई अर्थों में विशेष ध्यान दिये जाने की हकदार हैं। यह नजरअंदाज करने योग्य बात नहीं है कि अभी यहां गढ़ा जा रहा कथावितान अनगढ़ खुरदरेपन की गिरफ्त में पड़ा भले दिखे और नतीजतन वहां कलात्मक बारीकियां भी कम मिलें, लेकिन आदिवासी हिन्दी लेखकों की खास अहमियत इसकारण अर्थपूर्ण है कि इनकी मार्फत सदियों से कोहराच्छन्न एक बड़ी आबादी के जीवन मूल्य, जीवन शैली और अस्तित्व का संघर्ष पूरी दुनिया के सामने आ रहा है। बेशक अभी इनका कथ्य इनके आसपास का समाज जीवन है, मगर उम्मीद है कि कल इनमें से कुछ लेखक भारतीय समाज की समग्र कथाभूमि में भी अपनी गहरी पैठ बना लेंगे।
Sunday, January 31, 2010
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3 comments:
जोहार,
अपनी जन्मभूमि रांची कि बातें श्री राम दयाल मुंडा का पद्मश्री मिलना, सत्यभारती का का ज़िक्र... सब कुछ...न जाने क्या-क्या याद दिलाता गया...
मैं स्वयं रांची कि मिटटी से बनी हूँ और ...बहुत अच्छा लगा आपको पढना...बीते समय में जाना...और फिर एक बार...यादों को जीना...
तनी-मनी हम भी लिखेक कोसिस करीला...अगर राउरे पढेक पारब तो बढियां होवी...नागपुरिया गोठियावेक तो भुलाय जायं हों..
लेकिन कोसिस करेक में कोनो दिकयित नखे...
कखनों फुर्सयित निकलायके देखब तनी...
रामदयाल मुंडा को पद्मश्री मिलने की जानकारी आपके लेख से ही हुई। सचमुच बेहद खुशी हुई। अच्छा, प्रपंच संग्रह के पांच कवियों में एक रामदयाल जी भी थे न? खैर, रामदयाल जी को मिले पद्मश्री की चर्चा के बहाने इस लेख में आपने झारखंड के कई आदिवासी रचनाकारों के योगदान की चर्चा की, यह अच्छा लगा। यह सोच कर और खुशी हुई कि मैंने आदिवासी कलम का पहला हिंदी उपन्यास 'सुबह की शाम' लेखक - वाल्टर भेंगरा 'तरुण'पढ़ा है। हां पापा, यह किताब अब आपके पास नहीं होगी, क्योंकि उसे मैंने संत लुइस स्कूल में पढ़ते हुए अपने एक साथी प्रसन्न बाखला को दे दी थी, सिर्फ इसलिए कि उस उपन्यास के मुख्य पात्र का नाम प्रसन्न था। पर आज उस किताब को उससे वापस नहीं ले पाने का अफसोस है।
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