कृतियों के मूल्यांकन में आलोचक-समीक्षक नाम का जीव सर्वथा समर्थ माना जाता है। हिन्दी आलोचना के मिजाज पर नजर डालें तो उसे कई खेमों में बंटा हुआ और शेयर बाजार के रोल में देखा जा सकता है। एकेडमिक आलोचना सिलेबसी साहित्य का विपणन करती है। वहां परम्परावादी कसौटियों की हैसियत सबसे उंची है। दूसरी ओर सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में समकालीन लेखन पर चर्चा-परिचर्चा के स्तम्भ, विमर्श, टीका-टिप्पणियां, आलेख व पुस्तक समीक्षाएं तरजीह पाती हैं। तीसरे खेमे में विश्वविद्यालयी शोधप्रबंधों का जखीरा है जहां विवरणों की प्रामाणिकता और संदर्भ निर्देशों का महत्व सर्वोपरि है। इन तीनों तरह की आलोचनाशैलियों के अपने आग्रह और प्रयोजन हैं। प्राय: इन खेमों के निष्कर्ष और आकलन विवादग्रस्त हुआ करते हैं और अक्सर एक-दूसरे को कतई मान्य नहीं होते। यह जरूर है कि इन सभी श्रेणियों में कई नाम-काम हमेशा स्वीकृत-सम्मान्य रहते आये हैं। उन्हें संजीदगी से पढ़ा-गुना गया है।
इसके बावजूद अगर समग्रता में सोचें तो हिन्दी आलोचना का वर्तमान परिदृश्य मठाधीशों की बिरादरी में आपसी मुठभेड़ से खासा गुलजार है। प्रिंट मीडिया के विभिन्न मंचीय खेमों में अपनी डफली अपना राग का कोरस हर मौसम में साफ सुना जा सकता है। इस अंधायुग मार्का कोलाहल से छोटे व मंझोले शहरों-कस्बों की पाठक बिरादरी को वास्तविक स्थिति का सही अनुमान तुरत नहीं हो पाता। याद कीजिए कि पिछले दशक में गुजरी सदी के अवसान पर लगभग हर छोटी-बड़ी पत्रिका ने बीसवीं सदी, और खास तौर पर उसके उत्तरार्द्ध के समय की सृजनात्मक विरासत के मूल्यांकन का आयोजन किया। ऐसे अवसरों के ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार करने के बावजूद यह जोड़ना जरूरी है कि सृजन की आंचलिक विरासत और ताजगी इस पूरे तामझाम से अलग रही या रखी गयी।
इसके बावजूद अगर समग्रता में सोचें तो हिन्दी आलोचना का वर्तमान परिदृश्य मठाधीशों की बिरादरी में आपसी मुठभेड़ से खासा गुलजार है। प्रिंट मीडिया के विभिन्न मंचीय खेमों में अपनी डफली अपना राग का कोरस हर मौसम में साफ सुना जा सकता है। इस अंधायुग मार्का कोलाहल से छोटे व मंझोले शहरों-कस्बों की पाठक बिरादरी को वास्तविक स्थिति का सही अनुमान तुरत नहीं हो पाता। याद कीजिए कि पिछले दशक में गुजरी सदी के अवसान पर लगभग हर छोटी-बड़ी पत्रिका ने बीसवीं सदी, और खास तौर पर उसके उत्तरार्द्ध के समय की सृजनात्मक विरासत के मूल्यांकन का आयोजन किया। ऐसे अवसरों के ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार करने के बावजूद यह जोड़ना जरूरी है कि सृजन की आंचलिक विरासत और ताजगी इस पूरे तामझाम से अलग रही या रखी गयी।
अब थोड़ी देर के लिए हिन्दी संसार के प्रकाशन-मूल्यांकन की गतिविधियों पर निगाह डालें। दूसरी भारतीय भाषाओं की तरह हिन्दी में भी विशेष अवसरों पर विशेषांक निकालने का रिवाज पुराना है। बीते कई वर्षों में हिन्दी इंडिया टुडे के साहित्य विशेषांक चर्चित हुए। उन अंकों में शामिल लेखकों की तालिका पर नजर डालें तो यह साफ हो जायेगा कि झारखंड अंचल के लेखकों की उपस्थिति नामलेवा भर रही। यहां यह पूछा जा सकता है कि आखिर इसमें गलत क्या है! और ऐसा हुआ क्यों ? क्या इस इलाके के लेखक हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनात्मक भागीदारी कम निभा रहे ? सच इसके विपरीत है। यह किसी पत्रिका का विशेषाधिकार हो सकता है कि वह अपने चयन में अपनी कसौटी का उपयोग करे। किन्तु इस संप्रभुता का सम्मान करते हुए भी यह जोड़ना जरूरी है कि ऐसी मंशा के पीछे संपादक मंडल के अपने अघोषित प्रयोजन भी हो सकते हैं। यह जगजाहिर-सी सूचना है कि हिन्दी साहित्य की मुख्य परिधि में हर राज्य-प्रदेश की अपनी-अपनी लॉबी है। उस केन्द्रीय धुरी में जिन इलाकों से लेखक पहुंचते हैं, वे अपने अंचल के कलमकारों का भरपूर खयाल रखते हैं। तमाम वैचारिक मतभेदों के बावजूद ऐसे लोग अवसरों के प्रसाद वितरण के मुद्दे पर एक ही सुर-ताल से बंधे-जुड़े नजर आते हैं। अपवाद होते हैं और होंगे भी, मगर यह अपनी जगह कायम नतीजा है। अबतक साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा के बाद जो विवाद मीडिया में सामने आते रहे हैं, उनसे इस बात की तस्दीक होती है कि बायें या दायें चलने वाले लोग भी रस्साकशी के खेल में रमते-जमते हैं और अपने लोगों को रेबड़ियां बांटने में कोई किसी से पीछे नहीं दिखता। जहां तक लेखकीय कृतियों की समीक्षा का सवाल है, वहां परीक्षकों के गैरपेशेवर एप्रोच और शाही अंदाज की मिसालें अक्सर मिलती हैं। नाम-काम के हवाले देकर इस सड़े हुए तालाब के ठहरे पानी को और गंदला करना अपना न मकसद है, न इरादा।
अब किताबों के बाजार की ओर भी एक नजर डाल लेना मुनासिब लगता है। एक तरफ धुआंधार बयानबाजी होती है कि हिन्दी में किताबें बिकती नहीं, कि उनको पाठक नहीं मिलते, और दूसरी तरफ प्रकाशकों का मुहल्ला रोशन फव्वारों से गुलजार है। खुली आंख से देखने वाला नजारा यह है कि हिन्दी संसार में पुस्तक पथ पर रौनक का ग्राफ समृद्धि की ओर मुखातिब है। पिछले दिनों निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल और प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के बीच रायल्टी के हिसाब का विवाद खासा चर्चित हुआ था। राजकमल ने एक लिखित विज्ञप्ति में दावा किया था कि साल भर के भीतर निर्मल परिवार को उन्होंने लाख रूपये से अधिक का चेक सौंपा था। एक तरफ किताबों की बिक्री का रोना लेखक की रायल्टी गुम करने का जरिया बनता है तो दूसरी तरफ जानेमाने लेखकों को भी प्राप्त राशि से शिकायत की खबरें मिलती रहती हैं। वैसे यह अपनी जगह सही बात है कि रोजगार ओर कैरियर की महामारी में युवा पीढ़ी की पहली पसंद तकनीकी विषयों की किताबें ही हो सकती हैं। इसके बावजूद यह सही है कि सरकारी व थोक खरीदारी के चक्कर में पिछले काफी समय से किताबों की रिटेल या काउंटर सेल का खयाल हिन्दी के अधिकतर प्रकाशकों को नहीं रहता है। तभी पेपरबैक संस्करण या पॉकेट बुक्स की स्कीम उन्हें कम रास आती है। जिन किताबों के दोनों तरह के संस्करण बाजार में आते हैं, वे यह दोटूक बतला देती हैं कि पेपरबैक संस्करण हार्डबाउंड किताबों की आधी कीमत पर बिकते हैं। यह तो हुई पुस्तक बाजार की हकीकत। अब उनके मूल्यांकन के नेटवर्क की चर्चा भी हो जाये।
पुस्तक मेलों के स्टाल और प्रकाशन संस्थाओं की ओर से जारी बुकलिस्टों के जरिए यह खुलासा होता है कि हर महीने, हर साल हिन्दी में विविध विषयों और विधाओं की पुस्तकें बड़ी संख्या में प्रकाशित होती हैं। इस खुशनुमा माहौल में अगर दैनिकों के साप्ताहिक परिशिष्टों और पत्रिकाओं पर नजर डालें तो आप खुद देख सकते हैं कि समीक्षाओं के लिए चुनी गई किताबों का हाल कैसा है। पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों पर जिन किताबों की रिव्यू हम सब देखते हैं, वे वहां तक पहुंचती कैसे हैं, यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं । इस नाजुक मुद्दे की ब्योरेवार चर्चा असमंजस में डालने वाली हो सकती है। लिहाजा फिलहाल सिर्फ दो-एक रूझानों की झलक भर देखी जाये।
रिव्यू के लिए किताबों के चयन का मामला अगर संपादकीय विवेक का मामला रहे तो उसकी स्वायत्तता की कद्र मुनासिब है। लेकिन अगर वह मनमर्जी बन कर सामने आये तो आप क्या कर सकते हैं ! बहुसंख्यक लेखकों से पूछ कर देखिए तो वे ऐसी हठी पक्षधरता पर खीजते नजर आयेंगे। रिव्यू में क्या लिखा गया, यह तो बाद की बात है, उससे पहले समीक्षा के लिए मंजूर पैनल तक पहुंचने का काम भी सबके बस की बात नहीं। ठेठ व्यापारी किस्म के प्रकाशक रिव्यू के नाम पर कंप्लीमेंटरी कॉपी के नि:शुल्क वितरण की जहमत नहीं उठाते, बल्कि इसकी बजाये अपने निश्चित बाजार को पटाने को अहमियत देते हैं। अब लेखक बेचारा क्या करे ! किताब छप गई, यही कोई कम मेहरबानी है प्रकाशक की। लिहाजा वह अपने स्तर से, अपने संसाधनों की हद में, अपने सरोकारों का भरसक इस्तेमाल की कोशिश करता है।
लेकिन इस शिकायती लहजे से बहुत उपर की बात यह लगती है कि आज के दौर में पुस्तकें समीक्षा बाजार और विज्ञापन के जबड़े के बीच पड़ गयी हैं। अपना कयास है कि हम सब नीर-क्षीर विवेक के हंस मार्ग से बहुत आगे निकल आये हैं। बुक रिव्यू अब एक प्रायोजित कार्यक्रम है। शायद यही वजह है कि अपवादों की चुनी हुई मिसालें छोड़ दें तो पायेंगे कि अधिसंख्य पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा के पन्नों पर हिन्दी के कुछेक गण्य-मान्य प्रकाशकों के उत्पादों के विज्ञापन जैसा मैटर छप कर सामने आता है। एक अंक-बार में अगर छह किताबों की चर्चा हो रही हो तो तय मानिए कि वहां वही-वही यशस्वी घराने अपने श्रेष्ठ साहित्य के साथ मौजूद होंगे। मुमकिन है कि कभी-कभी यह संयोग या इत्तेफाक की बात हो, लेकिन यही दस्तूर बन जाये तो आप किस नतीजे पर पहुंचेंगे ? आखिरश किस बाजीगरी के कौशल से समीक्षा के मंच-मेले में बस यही गिनीचुनी कद्दावर हस्तियां अपना जलवा हमेशा बिखेर लेती हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष रीति से प्रायोजित यह परिदृश्य लेखक और पाठक के बीच एक मजबूत मगर अदृश्य दीवार बन कर खड़ा हो गया लगता है।
पुस्तक मेलों के स्टाल और प्रकाशन संस्थाओं की ओर से जारी बुकलिस्टों के जरिए यह खुलासा होता है कि हर महीने, हर साल हिन्दी में विविध विषयों और विधाओं की पुस्तकें बड़ी संख्या में प्रकाशित होती हैं। इस खुशनुमा माहौल में अगर दैनिकों के साप्ताहिक परिशिष्टों और पत्रिकाओं पर नजर डालें तो आप खुद देख सकते हैं कि समीक्षाओं के लिए चुनी गई किताबों का हाल कैसा है। पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों पर जिन किताबों की रिव्यू हम सब देखते हैं, वे वहां तक पहुंचती कैसे हैं, यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं । इस नाजुक मुद्दे की ब्योरेवार चर्चा असमंजस में डालने वाली हो सकती है। लिहाजा फिलहाल सिर्फ दो-एक रूझानों की झलक भर देखी जाये।
रिव्यू के लिए किताबों के चयन का मामला अगर संपादकीय विवेक का मामला रहे तो उसकी स्वायत्तता की कद्र मुनासिब है। लेकिन अगर वह मनमर्जी बन कर सामने आये तो आप क्या कर सकते हैं ! बहुसंख्यक लेखकों से पूछ कर देखिए तो वे ऐसी हठी पक्षधरता पर खीजते नजर आयेंगे। रिव्यू में क्या लिखा गया, यह तो बाद की बात है, उससे पहले समीक्षा के लिए मंजूर पैनल तक पहुंचने का काम भी सबके बस की बात नहीं। ठेठ व्यापारी किस्म के प्रकाशक रिव्यू के नाम पर कंप्लीमेंटरी कॉपी के नि:शुल्क वितरण की जहमत नहीं उठाते, बल्कि इसकी बजाये अपने निश्चित बाजार को पटाने को अहमियत देते हैं। अब लेखक बेचारा क्या करे ! किताब छप गई, यही कोई कम मेहरबानी है प्रकाशक की। लिहाजा वह अपने स्तर से, अपने संसाधनों की हद में, अपने सरोकारों का भरसक इस्तेमाल की कोशिश करता है।
लेकिन इस शिकायती लहजे से बहुत उपर की बात यह लगती है कि आज के दौर में पुस्तकें समीक्षा बाजार और विज्ञापन के जबड़े के बीच पड़ गयी हैं। अपना कयास है कि हम सब नीर-क्षीर विवेक के हंस मार्ग से बहुत आगे निकल आये हैं। बुक रिव्यू अब एक प्रायोजित कार्यक्रम है। शायद यही वजह है कि अपवादों की चुनी हुई मिसालें छोड़ दें तो पायेंगे कि अधिसंख्य पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा के पन्नों पर हिन्दी के कुछेक गण्य-मान्य प्रकाशकों के उत्पादों के विज्ञापन जैसा मैटर छप कर सामने आता है। एक अंक-बार में अगर छह किताबों की चर्चा हो रही हो तो तय मानिए कि वहां वही-वही यशस्वी घराने अपने श्रेष्ठ साहित्य के साथ मौजूद होंगे। मुमकिन है कि कभी-कभी यह संयोग या इत्तेफाक की बात हो, लेकिन यही दस्तूर बन जाये तो आप किस नतीजे पर पहुंचेंगे ? आखिरश किस बाजीगरी के कौशल से समीक्षा के मंच-मेले में बस यही गिनीचुनी कद्दावर हस्तियां अपना जलवा हमेशा बिखेर लेती हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष रीति से प्रायोजित यह परिदृश्य लेखक और पाठक के बीच एक मजबूत मगर अदृश्य दीवार बन कर खड़ा हो गया लगता है।
1 comment:
बाज़ार व्यवस्था और मठाधीशों से भाषाई संसार मुक्त नहीं होने वाला है. आलोचक और संपादकों के नाम वर्षों से बदले नहीं हैं. आपने हिंदी सेवा नाम के व्यापार का सटीक वर्णन किया है. विभिन्न अंचलों की सुगंध से हिंदी भाषा और साहित्य का विस्तार भी वर्षों से थमा हुआ है. अपनी भाषा में पढने का अवसर का मतलब अब दोअम
दर्जे के मुंशियों को पढना रह गया है.
यह सब मेरे जैसे जिज्ञासू पाठकों को आंग्ल भाषा की ओर खदेड़ना नहीं तो और क्या है?
संभव है बाज़ार का बदलता स्वरुप कोई राह दिखाए.
Post a Comment