विशाल हिन्दी पट्टी में साहित्य सृजन का जो कन्द्रीय प्रवाह है, उसमें विभिन्न अंचलों और दिशाओं की लेखकीय उर्जा विसर्जित होती है, तो भी पीड़क सच यह है कि उस संगम में जानी-मानी नदियों की जलधारा तो मान-सम्मान पाती है, मगर अनगिनत अन्त:सलिलाओं के अंशदान को लगभग नकार दिया जाता है। आज भी देश-देशान्तर की नदियों को जोड़ कर जन चेतना की अभिव्यक्ति के सम्यक वितरण की सांस्कृतिक इंजीनियरींग कारगर नहीं दिखती। बहरहाल ऐसी कोशिशें जारी हैं, तो भी मुश्किलें हल पर भारी हैं।
बेशक यह मामला लेखकों के काम, नाम या दाम तक ही महदूद नहीं है, क्योंकि इससे सामयिक तौर पर अभिव्यक्ति के दबावों, रूझानों, दिशाओं और रूपाकारों की नियति जुड़ी हुई है। लिहाजा, चंद जरूरी सवालों से रूबरू हुआ जाये जो समूची स्थिति पर भरपूर रोशनी डालते हैं। हिन्दी सर्जना के आंचलिक परिदृश्य पर गौर कीजिए तो उसकी बुनियाद मलबे में दबी नजर आयेगी। सोचिए, क्या बेहतर और प्रभावी रचनाओं की अन्तर्वस्तु का कोई आंचलिक पहलू नहीं होता ? क्या कोई क्षेत्रीय या स्थानिक प्रेरणा अभिव्यक्ति के कथ्य और संदेश के आकार व प्रकार को निर्धारित नहीं करती ? क्या कृति और परिवेश के जैविक सम्बन्धों की अनदेखी होने से रचना से प्रक्षेपित अर्थ संदर्भरहित हो कर धुंधला नहीं हो जाता है ? अगर नहीं, तो पूछा जा सकता है कि निर्मला पुतुल और विद्याभूषण की कविताएं, योगेन्द्र नाथ सिनहा, संजीव और मनमोहन पाठक की कथाकृतियां, किट्टू और प्रियदर्शी की व्यंग्य रचनाएं, रामदयाल मुंडा और बीपी केशरी की देशज अवधारणाएं- इन सब का उत्स कहां है ? उनकी भाषिक अभिव्यक्ति की जड़ें अपनी रचनाभूमि से बाहर और कहां खोजी जा सकती हैं ? यह अलग बात है कि लेखक हर बार और हर जगह सिर्फ अपने निकट वर्तमान से प्ररित नहीं होता और अन्य स्रोतों से सुलभ होती दिशा-दृष्टि भी उसे मानवीय मूल्यों से समृद्ध करती है।अगर हिन्दी सर्जना के आंचलिक परिदृश्य को सामने रखें और झारखंड में लिखे जा रहे साहित्य को सिर्फ कलावादी रूझान से नहीं परखें तो अभिव्यक्ति की उस भूमिका से परिचय हो सकता है जहां वह अपने समय और समाज की सांस्कृतिक समालोचना में लगी रहती है। अब यह बेझिझक कहा जा सकता है कि इस पठार में भाषिक सर्जना की तीन पीढ़ियां काम कर चुकी हैं और उनमें कई लेखकों का कृतित्व बड़े फलक पर चर्चा में रहा है। इसके बावजूद सच यह भी है कि कई नरगिसों को दीदावर का इंतजार है और कई जरखेज चीजें उपेक्षा के अंधेरे कोनों में छुपी हैं। पूछा जा सकता है कि आखिरश ऐसा क्यों हो रहा है। दरअसल यह सवाल खासा विवादग्रस्त है और उसके तमाम ओर-छोर एक-दूसरे से बेतरतीब उलझे हुए हैं।
सभी जानते हैं कि आजादी के बाद हिन्दी भाषा-साहित्य की नियामक गतिविधियों का केन्द्र बनारस-इलाहाबाद-पटना-कोलकाता से उठ कर दिल्ली में अन्तरित होता गया। धीरे-धीरे दिल्ली का दबदबा बढ़ता गया और जयपुर-भोपाल जैसे नये केन्द्र भी बने। तो भी आज की तारीख में दिल्ली का कोई प्रतियोगी नहीं दिखता। हिन्दी पट्टी के दूर-दराज इलाकों से नये-पुराने कलमकार राजधानी में शिफ्ट हो रहे। कहते हैं कि भाषा की प्रगति और विकास के लिए किसी महानगर की छतरी मददगार होती है। अनेक दूसरी भाषाओं के भौगोलिक संदर्भों को ध्यान में रखा जाये तो इस राय में कोई खोट नजर नहीं आती। लेकिन सत्ता खुद कई संकट खड़े कर लेती है और यही हिन्दी रचनाशीलता की पहचान का संकट भी है। हिन्दी की बहुसंख्यक पत्र-पत्रिकाएं राजधानी से संचालित होती हैं। यही स्थिति पुस्तक प्रकाशन जगत की भी है। निर्णायक संख्या में जाने-माने प्रकाशक दिल्ली में बैठे हैं। ऐसी भूभौतिकी में अगर हिन्दी सर्जना की दशा-दिशा राजधानी दिल्ली से संचालित व निर्देशित होती हो तो इसमें अचरज की बहुत गुंजाइश नहीं। आज की तारीख में प्रकाशन, मूल्यांकन, उत्पादन और वितरण तंत्र पर राजधानी का अप्रत्यक्ष एकाधिकार है और दिल्ली दरबार के प्रादेशिक क्षत्रप और क्षेत्रीय एजेंट उसके वर्चस्व की पहरेदारी करते हैं। ऐसे माहौल में अपनी पहचान बनाने में अधिक सफल वही लोग हैं जिनके तार मजबूत खूंटों से बंधे हैं।
चाहे ऐसे खूंटे लेखक संगठन सुलभ करते हों या विश्वविद्यालय परिसर के संपर्क सूत्र या फिर संपादकों-आलोचकों की गुटबाज जमात। आम तौर पर बहुसंख्यक हिन्दी लेखक ऐसे अभयारण्यों को रेस्ट हाउस की इज्जत नहीं देते और नतीजतन अपनी मान्यता के लिए संघर्षशील बने रहने को अभिशप्त बने रहते हैं।
सभी जानते हैं कि आजादी के बाद हिन्दी भाषा-साहित्य की नियामक गतिविधियों का केन्द्र बनारस-इलाहाबाद-पटना-कोलकाता से उठ कर दिल्ली में अन्तरित होता गया। धीरे-धीरे दिल्ली का दबदबा बढ़ता गया और जयपुर-भोपाल जैसे नये केन्द्र भी बने। तो भी आज की तारीख में दिल्ली का कोई प्रतियोगी नहीं दिखता। हिन्दी पट्टी के दूर-दराज इलाकों से नये-पुराने कलमकार राजधानी में शिफ्ट हो रहे। कहते हैं कि भाषा की प्रगति और विकास के लिए किसी महानगर की छतरी मददगार होती है। अनेक दूसरी भाषाओं के भौगोलिक संदर्भों को ध्यान में रखा जाये तो इस राय में कोई खोट नजर नहीं आती। लेकिन सत्ता खुद कई संकट खड़े कर लेती है और यही हिन्दी रचनाशीलता की पहचान का संकट भी है। हिन्दी की बहुसंख्यक पत्र-पत्रिकाएं राजधानी से संचालित होती हैं। यही स्थिति पुस्तक प्रकाशन जगत की भी है। निर्णायक संख्या में जाने-माने प्रकाशक दिल्ली में बैठे हैं। ऐसी भूभौतिकी में अगर हिन्दी सर्जना की दशा-दिशा राजधानी दिल्ली से संचालित व निर्देशित होती हो तो इसमें अचरज की बहुत गुंजाइश नहीं। आज की तारीख में प्रकाशन, मूल्यांकन, उत्पादन और वितरण तंत्र पर राजधानी का अप्रत्यक्ष एकाधिकार है और दिल्ली दरबार के प्रादेशिक क्षत्रप और क्षेत्रीय एजेंट उसके वर्चस्व की पहरेदारी करते हैं। ऐसे माहौल में अपनी पहचान बनाने में अधिक सफल वही लोग हैं जिनके तार मजबूत खूंटों से बंधे हैं।
चाहे ऐसे खूंटे लेखक संगठन सुलभ करते हों या विश्वविद्यालय परिसर के संपर्क सूत्र या फिर संपादकों-आलोचकों की गुटबाज जमात। आम तौर पर बहुसंख्यक हिन्दी लेखक ऐसे अभयारण्यों को रेस्ट हाउस की इज्जत नहीं देते और नतीजतन अपनी मान्यता के लिए संघर्षशील बने रहने को अभिशप्त बने रहते हैं।
4 comments:
आशा है - भविष्य में इस ब्लॉग पर अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी!
नए वर्ष पर मधु-मुस्कान खिलानेवाली शुभकामनाएँ!
सही संयुक्ताक्षर "श्रृ" या "शृ"
FONT लिखने के चौबीस ढंग
संपादक : "सरस पायस"
Tahe dilse swagat hai..!
Blog jagat me aapka swagat hai..parichhed gar thode chhote hon, to padhne me suvidha rahegee..! Anyatha na len...ek sujhaw maatr hai..
नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ द्वीपांतर परिवार आपका ब्लाग जगत में स्वागत करता है।
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